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र्म करो जीव तिहां लगें, होइ साहस धीर ॥ न० ॥ ॥ ६६ ॥ प्रारज देश लह्यो हवे, लाधो गुरु संजो ग ॥ अंगथक आलस तजो, करो सुकत संजोग ॥ ॥ उ० ॥ ६७ ॥ श्रीने मिराज ती परें, चेतो चित्त मांहि ॥ स्वारथनो सदु को सगो, कोइ किरो नांहि ॥ ॥ उ० ॥ ६८ ॥ जोग संजोग जी सहु, थया जे ख
गार || धन धन तसु माता पिता, धन धन अव तार ॥ ज० ॥ ६९ ॥ सुरतरु सुरमणि सारिखो, से वो श्रीजिनधर्म || जिपथी सुख संपति वधे, कीजें तेहज कर्म ॥ उ० ॥ ७० ॥ तंदूलि व्याजी में बे, एहनो अधिकार ॥ तिथी उद्धरीने कह्यो, नही जू व लगार ं ॥ उ० ॥ ७१ ॥ कलश || एह जैनधर्मवि चार सांगली, लहियें संजम जार ए ॥ वली सिंहनी परें सदा पाले, नियम निरतीचार ए ॥ संसारनां सु ख सकल जोगवी, ते लहे नव पार ए ॥ श्रीरत्नहर्षसु शिष्यरंगें, इम कहे श्रीसार ए ॥ ७२ ॥ इति नर्नवेली जीवनी उत्पत्तिनुं स्तवन संपूर्ण ॥
॥ अथ कुमात्रीशी प्रारंभः ॥
|| आदर जीव दमागुण यादर, म करिश राग ने द्वेष जी ॥ समतायें शिव सुख पामीजें, क्रोधें कुगति विशेष जी ॥ या० ॥ १ ॥ समता संजम सार सुणी जें, कल्पसूत्रनी साख जी ॥ क्रोध पूर्वकोडि चारित्र बाजे, नगवंत इणी परें जाख जी ॥ ० ॥ २ ॥ कुण कुण जीव तथा उपशमथी, सांजल तुं दृष्टांत जी ॥