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(३३५) ॥ तुं० ॥ ज्योतिस्वरूपें दुश्रा जगदीश्वर, अष्ट कर्म नो क्य करी ॥ तुं०॥ ॥ पश्चिम दिशि शत्रुजो ती रथ, पूरव समेत शिखर गिरि ॥ तुं० ॥ मोद नग रना दोये दरवाजा, नविक जीव रह्या संचरी ॥ ॥ तुं० ॥३॥ जगव्यापक जे अदर साहेब, पाप संताप काटन गिरि ॥ तुं॥ मोहोटुं तीरथ मोहोटो म हिमा, गुण गावत सुरासुरी ॥ तुं० ॥४॥ विषम पाहाड उजाडमें चिटुं दिशि, चोर चरड रह्या संचरी ॥ तुं० ॥ नयंकर डूंगर जूमि मरावण, देखत मंगर थरहरी ॥ तुं० ॥ ५॥ संवत सत्तरशें चुम्माले, चै त्र शुदि चोथें धरी॥ तुं० ॥ कहे जिनहर्ष वीशे टू कें, नावयुं चैत्यवंदन करी ॥ तुं० ॥ ६ ॥ इति ॥
॥ अभिनंदन जिनस्तवनं ॥ ॥अनिनंदन नाथ जुहारूं जी॥तीरथना रसिया ॥ प्रनु आवतां पाप निवारुं जी॥ मुफ हाडे वसि या ॥१॥प्रनु आगल पाप प्रकाशुं जी ॥ ती० ॥ प्रनु पुण्यथी पाम्या आ गुंजी।मु० ॥ २ ॥ में तो रसमां बदुरस नेव्यो जी ॥ ती० ॥ आरंन करी प रिग्रह मेट्यो जी॥ मु० ॥३॥ में तो क्रोधगुं मधु र स पीधा जी॥ती० ॥ रागरूष करी कूडां आल दी धांजी।मु०॥॥ में तो कूड कपट घणां कीधां जी ॥ ती० ॥ में तो लोनगुं परधन सीधां जी ॥ मु० ॥ ५ ॥ हुँ तो परनारीशुं रंगें रम्यो जी॥ती० ॥ व्रत नांगीने रातें जम्यो जी।मु०॥ ६ ॥ ज्यारें लेशे प्र