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(३१०) पूरी हे जगीश रे ॥नणे॥दमा ॥ २४ ॥ काहेकुं करत हे तुं मूढ अहंकार रे ॥ लक्ष्मी तो नांही थिर
आत जात फिर फिर, यौवननी जात खीर तुं तो हे गमार रे ॥ जाहिंको करत गर्व सोय बिगस जात स र्व, पावे नांहि नहि सर्व सो तो वार वार रे ॥ राव हीतें रंक होय रंकहीतें राव जोय, थिर रह्यो नांहिं कोय अथिर संसार रे ॥ नणे काहेकुं० ॥२५॥ म म कर मूढ माया कूडही कपट्ट रे ॥ मायातें नरक घोर मायाहीतें होत ढोर, मायाहीतं पावे जोर दुःख हींको थट्ट रे ॥ जो करत परोह मंमत कपट मह, आपकुं शोषण खोह कां होत जट्ट रे॥ हियांदसुं चेत नर मोहमाया परिहर,संसार सागर तर पायो हे तट्ट रे ॥जणे ॥ म म कर ॥ २६ ॥ सुख होत लोन वश करत करत रे ॥ लोनहितें रातदिन्न चिंतें मेलुं मेलुं धन्न,कुःख होत लोन मन धरत धरत रे ॥ जोरे धन्न रल रल आयु घटे पल पल, जात ज्युं अं जल जल करत करत रे ॥ सुनूम प्रमुख नूप करत जे दोर धूप, बोड गये लोज कूप जरत जरत रे॥ जणे ॥ सुख होत ॥ २७ ॥ काहेकुं करत लोन देत क्युं न दान रे ॥ दान शिव सुखदाय दानथें दा रिझ जाय, घरें नवनिधि थाय माने राय रान रे ॥ दान देवो चित्त लाय दानें धन वृद्धि थाय, जेसें वा डी कूप पाय होत वृद्धिमान रे ॥ देखो हो सुमुख जिन प्रतिलान्यो महामुन, कुमर सुबाहू तिन रू