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श्राय मिले, मांहे समकित जले तो कहा पाइयें ॥ ज० ॥ शीलवत० ॥ २० ॥ अति घणो परिग्रह 5: वहींको हेत रे || कोइ नर नरपति चलत परतगति, परिग्रह देख मति साथ नांहि लेत रे || देखो क्युं न ब्रह्मदत्त सयंनूम चक्रवर्त्त, सातमी नरक पत्त सूत्र साखी देत रे || खात पीत नाइ बंध पाप चडे तोरे खंध, कां मूढ होत अंध दिये कबु चेत रे ॥ नये ॥ प्रति० ॥ २१ ॥ संतोष करत जीव नित्य सुख पाइयें ॥ संतोष करत नर दुःखको सागर तर, परम यानं द घर ततक्षण पाइयें || देखो हो कपिल मुन संतोष करत जिन, पायो हे केवल धन धन्य गुण गाइयें ॥ जिनवर गणधर गणिवर मुनिवर, परम संतोष कर शिवपुर जाइयें || नणे० ॥ संतोष० ॥ २२ ॥ क्रोध हे अनर्थ मूल को दूर बोड रे ॥ क्रोधहीतें नरक जा क्रोध य वाघ सिंघ सर्प थाय, क्रोधहीतें नरम लाय नव कोडाकोड रे ॥ क्रोधहीतें प्रीत जाय क्रोधहीतें विष खाय, क्रोध बहू दुःखदाय जीव खाणे खोड रे ॥ क्रोधकी उपनी काल जू तुमें ततकाल, करी नाखो खाल माल पीठा मन मोड रे ॥ ज० ॥ क्रोध ० ॥२३॥ दमा करो नरपूर म म करो रीश रे ॥ दमाहींते वेर जाय डुषमन लागे पाय, त्रिभुवन जस थाय सही विश्वावीश रे || देखो गजसुकुमाल दमा करी क्रोध मार, संसारको पायो पार वंदो निश दीस रे ॥ राय परदेशी धन्न दमा करि एक मन्न, देवलोक पायो तिन्न