________________
(३००) दधि होत थल, उष्ट विष विषधर (अमृत अपार है) सबहींकी खार है। जरो ॥ विमल ॥ १६ ॥ चोरी करो को मन चोरीतें विनाश रे ।। चोरीतें से राजा दंम मार करे शन खर, गधे चाडे शिर मुंम फेरवत तास रे ॥ मार मार कहे जन आरत करत मन्न, राजा जाणे ततरिन दे. गलफास रे ॥ देखो हो अनं ग सेन चोरी बंध पायो जेन, कुटुंबसहित तेन कि यो नरकाबास २॥ जणे ॥ चरी ॥ १७ ॥ पायें अमरपद दत्तव्रत पालतें ॥ देखो ज्यं अंबड सीस संख्या वीस पांतरीन, जेठ मास एक दीस पंथ शिर चालतें ।। तृपा लागी परिवल पियो नांहिं गंग जन, व्रत पाठ्यो निरमल पणके टालतें ॥सत सय काल कर दुआ महर्दिक सुर.सुख लाने इनपर आ गम संजालतें ॥जणे० ॥ पायें ॥ १७ ॥ मम कर मम कर परनारी संग रे ।। परनारी देख कर कटाद नयन जर, आपद पावत नर दीप ज्युं पतंग रे ॥ खिमात होत सुख देखे नव सत उःख, करत वि पम विष मूरतिको नंग रे॥ फिट फिट करे लोय अज स कीरति होय, रमणि कारण जोय होत मोहोटा जंग रे॥जरो० ॥ मम कर० १.१॥ शील व्रत पालो जिम शिवपूर जायें ॥ शीलहीतें नमे देव सुरनर सारे सेव, शीलवंत नित्यमेव देवहीज्यूं ध्यायें ॥ देखो हो सुदरशन शील पाट्यो एक मन, शीलहीतें त्रिनु वन जस गुण गायें ॥ शीलतें संकट टले संपतकुं