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होत एक ठोर कबु नांहिं शर्म रे ॥ ज० ॥ सं सार० ॥ १२॥ श्रापसम राखो प्राणी हिंसा दूर टालकें ।। हिंसा हे अनर्थखान हिंसा तिहां पाप जान, जीव हिं सा बोड प्रान राग द्वेष टालकें ॥ हिंसाहीतें रोग शो ग खान पान हीन जोग, बहु दुःख सहे लोग हिंसा हितें नालकं ॥ सुनूम चक्रवरत देखो जमदग्नि पूत, सातमी नर पत्त हिंसा पंथ चालकें ॥ ज० ॥ आपसम० ॥ १३ ॥ खने दान खट काय जीवनकूं दीजीयें ॥ दान बडो धर्म टाले हे डुःकृत कर्म, ओर हे मिथ्यात नर्म काहेकुंज कीजियें ॥ शरणें रा ख्यो पारापति मेघरथ नरपति, सिंचानेकुं कहे व्रत्ति मेरो मांस लीजियें || दान दियो तिन्न चक्रवर्त्ति दुवो जिन्न, शांति नाथ दिन्नदिन्न त्रिभुवन पूजियें ॥ न ऐ० ॥ अ० ॥ १४ ॥ काहेकों बोलत हे तुं जूठ निराताल रे ॥ जूठ जांखे महापुष्ट पापहीकों करे पुष्ट, लोक सहू करे खष्ट तुंतो हे लबाड रे ॥ जूठा बोलो कहे लोय माने न वचन कोय, तिरियंच होत सोय आगम संजाल रे || देखो राजा वसुनोज मी सर वचन बोल, सातमी नरक घोर गयो करी काल रे ॥ ज० ॥ काहेकों ० ॥ १५ ॥ विमल वचन सत्य सदू सुखकार हे || विमल वचन जम्म सुखदायी सहु जन्न, जिनकी सुनत कन्न अमृतको धार हे || सिद्ध जे साधक नर ताकी विद्या सिद्ध कर, सुसेवित मुनि वर सत्य जग सार हे ॥ सत्यतें पावक जल महो
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