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कों गमाइयें ॥ ज० ॥ घडी० ॥ ॥ जनमत कहा जयो करे क्युं न ग्यान रे ॥ उपनो तुं गर्नवास बसियो सवा नवमास नर्ककी उपम जास दुःख दिवाण रे ॥ नंठ कोडी सोइ होम चांपे कोइ रोम रोम, आठ गुणो प्रतिलोम गर्न दुःख जाए २ ॥ ब तुं जनम पाय संसारको लागो वाय, फेर रह्यो क्यों लुनाय तुं तो हे अभ्यान रे ॥ नणे० !! जन भत० ॥ ए ॥ जरा दूर जब लगे तब लगे जग रे || जरा जब श्राय लग लाल पमें मुख मग, दंत गये सबे जग मग मग पग रे ॥ जरा आइ गर बुद्धि रही नही कबु शुद्धि, रोग लगे वीध वीध जरा पडो धीग रे ॥ को कोई माने नाहिं दुःख घरे मनमांहि, यौ वनको दीस जाहि उठी धर्म नगरे ॥ ज० ॥ जरा ० ॥ १० ॥ यमको विसास नांहिं मूढ तुं संजाल रे ॥ काइ नू लो देख जाल चेते क्यों न प्रानी लाल, गहेगो पुर्ज न काल बालदी गोपाल रे || सरग पाताल जाय औषध नेषध खाय, करे बहूही उपाय तोही ग्रहे काल रे || घट घटत जात पल घडी दिनरात, या खो गलत जात करत जंजाल रे ॥ ज० ॥ यम० ॥ ११ ॥ संसार असार तामें सार एक धर्म रे ॥ सं सार प्रसार एह दीसत प्रजात जेह, सांज समे नां ह्रीं तेह कांहिं पड्यो नर्मरे । मेरो मेरो कांहिं करे सगो नांहिं कोई तेरे, जीवही एकीजो फिरे गुंजे नीज कर्म रे ॥ संसारसागर घोर जम्यो जीव गेर ठोर, कोइ
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