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(३०५) धर्महिंसुं जेण नर एक लय लाएं ॥ नणे० ॥ जग॥ ४ ॥ उठ उठ धर्म कर सोवे मूढ कहा रे ॥ उस्तर सागर तर कोइ तट पार कर, सोवे तिहां निं द जर फिरि आवे उहां रे ॥ संसार सागरमांहिं जाको
आदि अंत नांहिं, चमत चम, ताहिं पुदगल जिहां रे ॥ कांगे हे मानव नव नीत मूढ पायो अब, सोवे मति खीन लव चेत चेत इहां रे॥जणे ॥ नत ॥ ५ ॥ सुरतरु काट कर आक वावे तेह रे ॥ चिंता मणि पाय कर मूढ ताकुं परहर, काच ग्रहे रंगनर ता सों करे नहरे ॥ गजपति वेच कर सो तो मूढ लेत खर, पावे नहिं फेर फेर मुह परें खेह रे ॥ महामूढ होत सोयं काम नोग रक्त होय, हारे हे रतन जोय मनुष्यको देह रे ॥जणे ॥ सुरतरु० ॥ ६ ॥ उत्तम को संग कर नीच संग टानकें ॥ देखो हो सागर संग खारी होत महा गंग, निंब ज्युं चंदन संग चंदन ज्युं नालकें ॥ जातें खीर होत नीर ताकुं मिले जसु वीर, सोनी बेठ जात खीर निजगुण गालकें ॥ पात्र बिन तारे वार टाले रक्तको विकार, तुंब नेद जये चार निन्न संग चालकें॥ जो० ॥ उत्तमको॥ ७ ॥ घडी घडी मूढ तेरो आयुजल जायें ॥ कारमो कुटंब एह. काहेकुं करत नेह, हारे हे मनुष्यदेह फेर कहां पायें ॥ माय ताय घर बार बेटा बहू परीवार, आवे नहिं तोरी लार, जासों मन लायें ।। एक मेरी सी ख सुन धर्म कर एक मन मानव नव रतन काये