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पको निधान रें॥जणे॥काहेकुं० ॥ २७ ॥ बडो व्रत व्रतमांहे शीलवत जान रे ॥ सागर आगर मां हिं स्वयंच उदधि मांहि, वडो दान दान मांहि अ जय ज्युं दान रे ॥ चंद ग्रहगणमांहि, ब्रह्मलोक कल्प मांहि, बडो झान झान मांहि केवल ज्युं ज्ञान रे ॥ अरिहंत मुनि मांहे मनोरम गिरिमांहे, बडो ध्यान ध्यानमांहे सुकल ज्युं ध्यान रे ॥ नणे० ॥ बडो० ॥२ए ॥ नवकोटि कृतकर्म तपहीतें टालियें ॥ तपतें वांडित फल होत जीव निरमल, तप रूप दा वानल कर्म वन बालियें ॥ देखो धनो अणगार उक्कर तपको कार बोडकें बतीस नार जिनव्रत पालियें ॥ सागर तेत्रीश वर दूळ अणुत्तर सुर, जाके गुणरूप जल आतम पखालियें ॥ ज०॥नवकोटि॥३०॥ नावहीतें होत सिम नावहीं प्रधान रे ॥ बहू विधे व्रत लीध तप कीध दान दीध, नाव विना नांहिं सि ६ होत फल हान रे ।। सुन नाव नावे जेह नव निधि तरे तेह, पायो ज्युं मुगति गेह जरत राजान रे ॥ मरुदेवी मात धन उक्करह तप बिन, शिव पद पायो जिन ध्याई गुन ध्यान रे ॥ नणे ॥ नावही ॥३१॥धर्म हे मंगल मूल धर्महीकुं सेव रे ॥ धर्म हे कलप वृद देखो जातें परतद, जोगवेहे लोक सद सौख्य नित्यमेव रे ॥ धर्मके उत्तम फल जाति कुल रूप बल, विकट संकट टल जाते ततखेव रे ॥ धर्महीं पुष्कृत दहे इंशादिक पद लहे, धर्मे शिव सुख