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(२७५) यो जे, दमादिक संयोगें रे ॥ निश्चयथी निज गुण नो कर्ता, अनुपचरित व्यवहारें रे॥ व्यकर्मनो मग रादिकनो, ते उपचार प्रकारे रे ॥ ६४॥ चोथु थानक में ते नोक्ता, पुण्य पाप फल केरो रे ॥ व्यवहारें नि श्रय नय दृप्टें, मुंजे निज गुण नेरो रे ॥ पंचम थानक ने परम पद, अचल अनंत सुख वासो रे ॥ आधि व्याधि तन मनथी लहिये, तसु अनावें सुख खासो रे ॥६५॥ बहुं थानक मोद तणु ,संयम झान उपायो रे ।। जो सहिजें लहियें तो सघने, कारण निःफल था यो रे ॥ कहे ज्ञान नय झानज साचुं,ते विण फूठी कि रिया रे॥ न लहे रूपू रूपूं जाणी, शीप जणी जे फरि या रे॥६६॥कहे किरियानय किरिया विण जे, ज्ञान तेह युं करशे रे ॥ जल पेसी कर पद न हलावे, तारू ते किम तरशे रे ॥ दूपण नूपण ने इहां बदुलां, नय ए केकने वादे रे ॥ सिद्धांती ते वेदु नय साधे, झानवंत अप्रमादें रे॥६७ ॥ एणि परें सडशठ बोल विचारी, जे समकित पाराहे रे॥राग देष टाली मन वाली, ते स म सुख अवगाहे रे ॥ जेहनुं मन समकितमा निश्चल, कोइ नही तस तोले रे ॥ श्री नय विजय विबुध पय सेवक, वाचक जस इम बोले रे ॥ ६ ॥ इति श्रीस म्यक्त्वना सडशठ बोलनी सद्याय संपूर्ण ॥
॥अथ श्रीसुविधिजिन स्तवन प्रारंजः॥ ॥ लागो लागो रे प्रनुगुं नेह, वसीयो हडामां॥ महारो साहिबो अतिहि सनेह ॥ वसी० ॥ दर्शन