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(२३४) मल ग्यान समाज ॥ ११ ॥ तिमिर रोगसें नयन ज्युं, लखे उरकी उर ॥ त्युं मन संशयमें परे, मिथ्या मतकी दोर ॥ १२ ॥ ज्यु औषध अंजन कीए, ति मिर रोग मिट जाय ॥ त्युं सदगुरु उपदेशथें, संशय वेग पलाय ॥ १३ ॥ जैसें सब जाऊ जरे,धारामति की आग ॥ त्युं मायामें तुम पडे, कहां जागे नाग ॥ १४ ॥ पायनसों ते बचे, जे तपसी निर्यथ ॥ तजी माया समता ग्रहो, एह मुगतको पंथ ॥ १५ ॥ ज्युं कुधातुके नेटा, घटवध कंचन कंत ॥ पाप पुण्य करतो नवें, मूढमति बहु नंत ॥ १६ ॥ कंचन निज गुण नही तजे, वान हीन नही होत ॥ घट घट अं तर अातमा, सहज स्वजाव उद्योत ॥ १७ ॥ पना पीठ पक्काश्य, शुरू कनक ज्यु होय ॥ त्युं परगट प रमातमा, पुण्य पाप मल धोय ॥ १७ ॥ पर्व राके गहनसें, सूरसोमबवि बीन ॥ संगत पाइ कुसाधुकी, सऊन होत मलीन ॥ १५ ॥ निंबादिक चंदन करे, मलयाचलकी बास ॥ उऊन थें सऊन नये, रहत साधुके पास ॥ २० ॥ जैसें तलाव सदा जरे, जल
आवत चिहुँ उर ॥ तैसें आश्रव हारथें, करम बंधको जोर ॥ २१ ॥ ज्युं जल आवत मूदीयें, सूके सरवर पानातैसें संवरके कीये, करम निरजरा जान ॥२॥ ज्युं ब्रटी संयोगथें, पारा मूडित होय ॥ त्युं पुजला तुम मिले, आतमशक्ति समोय ॥ २३ ॥ मेल खटा मांजीयें, पारा परगट रूप ॥ शुकल ध्यान अन्यास