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(२३३) पास वारसि पुरि नगरी, तिहां उदयो जिनवर उदय करी ॥ समयसुंदर कहे कर जोडो॥ नित्य० ॥ ७ ॥
॥अथ झानपच्चीशी प्रारंजः ॥ ॥ सुर नर तिरि जग योनिमें, नरक निगोद जमं त ॥ महामोहकी निंदमें, सोवे काल अनंत ॥१॥ जैसे ज्वरके जोरसें, जोजनकी रुचि जाय ॥ तैसें कुकर्मके उदय, धर्मबचन न सुहाय ॥ ॥ लगे नूख ज्वरके गये, सचिगुं लेत आहार ॥ अगुनहीन शुनके जगे, सो जाने धर्म बिचार ॥ ३ ॥ जैसे पवन फकोलथें, जलमें नवे तरंग ॥ त्युं मनसा चंचल जये, परिग्रहके परसंग ॥ ४ ॥ जिहां पवन नहि संचरे, तिहां नही जलकबोल ॥ त्युं सब परिग्रह त्यागथें, मनसा होय अमोल ॥ ५ ॥ ज्युं कादु वि पधर मसे, रुचिगुं निंब चबाय ॥ त्युं तुम ममता झुं मढे, मगम विषय सुख थाय ॥ ६ ॥ निंबरस फरसे नही, निर्विषतनु जव होय ॥ मोह घटे ममता मिटे, विषय न वंजे कोय ॥ ७ ॥ ज्यूं सबि नौका चढे, ब्रूडे अंध अदेख ॥ त्युं तुम नवजलमें पडे, बिनु विवेक धरी नेख ॥ ७ ॥ जिहां अखंमित गुण लगें, खेवट शु६ विचार ॥ आतमरुचि नौका चढे, पावही नवजल पार ॥ ५ ॥ ज्युं अंकुश माने नही, महा मतंग गजराज ॥ त्युं मन तृष्णामें फिरे, गिने न काज अकाज ॥ १० ॥ ज्युं नर दाय नपाय करि, गही आने गजराज ॥ त्युं मन या वश करनकू, नि