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थें, दर्शन ज्ञान अनूप ॥ २४ ॥ कहे उपदेश बनार सी, चेतन अब कबु चेत ॥ याप बुजावत आपकूं, उदय करनके हेत ॥ २५ ॥ इति ज्ञानपच्चीशी ॥ ॥ अथ रणिक मुनिनी सझाय ॥
॥ अरणिक मुनिवर चाव्या गोचरी, तडके दाजे शीशो जी ॥ पाय वाणे रे वेलू परजने, तनु सुकु माल मुनीशो जी ॥ अर० ॥ १ ॥ मुख करमाणुं रे मालती फूल ज्युं, उनो गोंखनी हेगे जी ॥ खरेरे ब पोरें रे दीवो एकलो, मोही माननी दीगे जी ॥ अर लि० ॥ २ ॥ वयण रंगीली रे नयरों वेधियो, ऋषि थं यो तेणें गमो जी ॥ दासीने कहे जारे उतावली, ए ऋषि तेडी आणो जी ॥ अरणि ॥ ३ ॥ पावन कीजें रे ऋषि घर यागणुं, वोहोरो मोदक सारो जी ॥ नवयौवनरस काया कां दहो, सफल करो संसारो जी ॥ रशि० ॥ ४ ॥ चंशवदनी रे चारित्र चूकव्युं, सुख विलसे दिन रातो जी ॥ बेठगे गोंखें रे रमतो सों गठे, तव दीवी निज मातो जी ॥ अरणि० ॥ ५ ॥ अरकिरणिक करती मा फिरे, गलियें गलियें तिवारी जी ॥ कहो केरों दीठो रे महारो अरणीलो, पूछें लोक हजारो जी || अरणि ॥ ६ ॥ उतस्यो ति हांथी रे जननी पाय पड्यो, मनशुं लाज्यो पा रो जी ॥ वव तुज न घटे रे चारित्र चूकवुं, जेहथी शिवसुख सारो जी ॥ अरणि ॥ ७ ॥ एम समजावी रे पाढो वालीयो, खाएयो गुरुने पासो जी ॥ सह