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________________ (२२०) कूडां, सगां सदु दरें टले ॥ असरज्यो उच्चाट था ये, प्राण तिहां लागी रहे ॥ इह लोक पामे आप दा, परलोक पीडा बदु सहे ॥ ७ ॥ चाल ॥ रामने रूपें रे, शूर्पनखा मोही ॥ काज न सीधुं रे, अने ईज त खोई ॥ नथलो ॥ ईजत खोइ देख अनया, सु दर्शन नवि चल्यो ।। जरतार आगल पडी नों।. अ पवाद सघले नबल्यो । कामनी बुझे कामिनी, वं कचूल वाह्यो घणुं ॥ पण शियलथी चूकी नहीं ह ष्टांत एम केतां जणुं ॥ ॥ चाल ॥ शियल प्रनावें रे, जुवो शोले सती ॥ त्रिनुवनमांहे रे, जे थई बती ॥ नथलो ॥ बती थश्ने शियल राख्यु, कल्पना की धी नही ॥ नाम तेहनां जगत जाणे, विश्वमांकगी रही ॥ विविध रत्ने जडित नूपण, रूपसुंदरी किन्नरी ॥ एक शियल विण शोने नही. ते सत्य गगजो सुं दरी ॥ ए ॥ चान ॥ शियल प्रजावें रे, सतु सेवा क रे ॥ नवे वाडें रे, जेह निर्मल धरे ॥ उथलो ॥ धरे निर्मल शियल उऊल, तास कीर्ति फलदले ॥ मन कामना सवि सिदि पामे, अष्ट जय दूरे टलें ॥धन्य धन्य ते जाणो धरा, जे शियल चोऱ्या आदरे, आनं दना ते उघ पामे, उदय महाजस विस्तरे ॥१०॥ ॥अथ कोधनी ससाय ॥ ॥ कडुवां फल ले क्रोधनां, झानी एम बोले ॥री शतणो रस जाणीयें, हालाहल तोलें ॥ ग ॥ १ ॥ कोधे कोड पूरव तणु, संजम फल जाय ॥ क्रोध स
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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