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हित तप जे करे, ते तो लेखें न थाय ॥ क० ॥ २ ॥ साधु घणो तपीयो हुतो, धरतो मन वैराग ॥ शिष्य ने क्रोधथकी थयो, चंमकोशियो नाग ॥ क० ॥ ३ ॥ याग उठे जे वरथकी, पहेलुं ते घर बाजे ॥ जलनो जोग जो नवि मजे, तो पासेंनुं प्रजाले ॥ क० ॥४॥ क्रोध तणी गति एहवी, कहे केवलनाली ॥ हाल क रे जे हेतनी, जालवजो प्राणी ॥ क० ॥ ५ ॥ उद यरतन कहे कोधने, काढजो गले साई ॥ का या करजो निर्मली, उपशम रस नाई ॥ क० ॥ ६ ॥ ॥ अथ माननी सझाय ॥
॥ रे जीव मान न कीजीयें, मानें विनय न यावे रे ॥ विनय विना विद्या नहीं, तो किम समकित पावे रे ॥ २० ॥ १ ॥ समकित विण चारित्र नहीं, चारित्र विण नहीं मुक्ति रे ॥ मुक्ति विना सुख शाश्वतां, केम ल हि यें युक्ति रे || रे० ॥ २ ॥ विनय वडो संसारमां, गुण मां अधिकारी रे || गर्दै गुएा जाये गली, चित्त जूने विचा री रे ॥ रे ० ॥ ३ ॥ मान कखुं जो रावणें, ते तो रामें मायो रे || दुर्योधन गरखें करी, अंतें सवि हास्यो रे ॥ रे० ॥ ४ ॥ शूकां लाकडां सारिखो, दुखदायी ए खो टो रे ॥ उदयरत्न कहे मानने, देजो देशोटो रे ॥ रे० ॥ ५ ॥ अथ मायानी संझाय ॥
॥ समकितनुं बीज जाएगीयें जी, सत्य वचन सा दात ॥ साचामां समकित वसे जी, कूडामां मिथ्या तरे ॥ प्राणी ॥ मकरो माया लगार ॥ १ ॥ ए