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(१७३) ॥ अथ श्री अनिनंदन जिन स्तवनं ॥
॥ आळे लालनी देशी ॥ ॥ अकल कला अविरुद, ध्यान धरे प्रतिबु६ ॥ याने लाल, अनिनंदन जिन चंदना जी॥रोमांचित थइ देह, प्रगट्यो पूरण नेह ॥ आ० ॥चं ज्युं वन अरवंदना जी॥ १ ॥ एको खिण मन रंग, परम पुरुपनो संग ॥ आ ॥ प्राप्ति होवे तो पामीयें जी। सुगुण सलूणी गोठ, जिम साकर नरी पोठ ॥ आ० ॥ विण दाम विवसाय जी ॥ ॥ स्वामी गुण मणि तुऊ, निवसे मनडे मुफ ॥ आ० ॥ पण कहिये ख टके नहीं जी॥ जिम रज नयणे विलग्ग, नीर करे निर वग्ग ॥ आ० ॥ पण प्रतिबिंब रहे सासही जी॥३॥ में जाच्या के जद, तारक जो प्रत्यद ॥ ॥ पण को साच नाव्यो वगें जी ॥ मुफ बटु मैत्री देख, प्रनु मत मूको नवेख ॥ आ॥ आतुर जन बहु उलगे जी ॥४॥ जग जोतां जगनाथ, जिम तिम आव्या हाथ ॥ आ० ॥ पण रखे हवे कुमया करो जी॥ बीजा स्वारथी देव, तुं परमारथ हेव ॥ आ० ॥ पा म्यो हवे हुँ पटतरो जी ॥ ५ ॥ तें तास्या के कोड, तो मुफथी शी होड ॥ श्रा० ॥ में एवडं गुं अलेहां जी ॥ मुफ अरदास अनंत, नविनी डे जगवंत ॥ या ॥ जाणने युं कहेQ घणुं जी ॥ ६ ॥ सेवाफल यो आज, नुलवो कां माहाराज ॥ आ० ॥ नख न जांगे जामणे जी॥ रूपविबुध सुपसाय, मोहन ए