________________ (172) लगुं ॥सा॥ मकर मयगलमद पीराचे, पण शुने मुखें लालच नवि माचे ॥साना तारक बिरुद क हावो बो मोहोटा, तो मुफथी किम था जो खोटा॥ सा० // रूपविबुधनो मोहन नांखे, अनुनव रस आ पंदयुं चाखे // सा० // // इति // ॥अथ श्री संजय जिन स्तवनं // // आघा याम पधारो पूज्य // ए देश // // समकितदाता समकित आपो, मन मागे.थ धीतुं // बति वस्तु देतां युं शोचो, मी जे सहुएं दीतुं // 1 // प्यारा प्राण की डो राज, संनव जिन वर मुझने ॥ए आंकणी॥ श्म जाणो जे आ लहीएं, ते लाधुं युं लेबु // पण परमारथ प्रीबी आये, तेहज कहीयें देवं // प्या० // 2 // अर्थी हुँ तुं अर्थ सम प्र्पक, श्म मत करजो हांसुं // प्रगट न हतुं तुमने पण पहिला, ए हासानु पासुं। प्या० // 3. // परम पुरुप तुमें प्रथम नजीने, पाम्या ए प्रनुताई, तिण रूपें तुमने इम नजीयें, तिणें तुम हाथ वडाइ / प्या० // 4 // तुमे स्वामी हुँ सेवा कामी, मुफरे स्वामी निवाजे, नहि तो हठ मामी मागतां, किणविध सेवक लाजे // प्या० // 5 // ज्योतें ज्योति मिले मत प्रीबो, कुण लहेशे कुरा जजशे // साची नक्ति ते हंसतणी परें, खीर नीरमय करशे // प्या० // 6 // उलग कीधी जे लेखें ावी, चरण नेट प्रनु दीधी॥ रूपविबुधिनो मोहन पनणे, रसना पावन कीधी // प्या० // 7 //