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रूपनो, जिन अंतरजामी ॥ वा० ॥ ५ ॥ इति ॥ ॥ अथ श्री अजित जिन स्तवनं ॥ ॥ मोतिडानी देशी
॥ अजित जित जिन अंतर जामि, अरज करूं बुं प्रभु शिर नामि ॥ साहिबा ससनेही सुगुनी, वा तडी कहुं केही ॥ आपण बालपणाना स्वदेशी, तो हवे किम था बो विदेशी ॥ सा० ॥ १ ॥ पुष्य अधिक तुमें हुआ जिणंदा, यादि अनादि में तो बंदा ॥ सा० ॥ जो प्रनुपाम्या बो प्रभुताई, दास निवाजियें तो बेव डाइ ॥ सा० ॥ २ ॥ ताहरे याज मला बे शानी, तुंहिजली लावंत तुं ज्ञानी ॥ सा० ॥ तुजविण अन्यने कां नथी ध्याता, तो जो तुंबे लोक विख्याता ॥ सा० ॥ ३ ॥ एकने दर एकने अनादर, इम किम घटे तुमने करू गाकर ॥ सा० ॥ दचिए वाम नयन बिहुं सरखी, कुण
कुरा अधिक परखी ॥ सा० ॥ ४॥ सामता मुकथी न राखो स्वामी, शी सेवकमां देखो वो खामी ॥ सा० ॥ जे न जहे सनमान स्वामिनो, तो तेहने कहे सहुको कमिनो ॥ सा० ॥ ५ ॥ रूपातीत जो मुऊथी याशो, ध्याशुं रूप करी किहां जाशो ॥ सा० ॥ जडपरमाणु
रूपी कहीयें, महत संजोगेंशुं, रूपी न थश्यें ॥ सा० ॥ ६ ॥ धन जो लगे किमपि न देवे, जो दिन मणि कनकाचल सेवे ॥ सा० ॥ एहवुं जाएगीढुं तुऊने सेवुं, ताहरे हाथ बे फलनुं देवं ॥ सा० ॥ ७ ॥ तुफ पय पंकज मुऊ मन वलगुं, जाये किहां बंमीने अ
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