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(१७०) ॥ ३ ॥ दूरथकां पण साजनां, साहिबा. सांबरे नव रंग रीत ॥जि०॥ पूरवपुण्यें पामियें, साहिबा परम पुरु पशुं प्रीत ॥ जि० प्रा० ॥४॥ मत मत नय नय कल्पना, साहिबा इतरेतर परिमाण ॥ जि ॥ रूप अगोचर नवि लहे, साहिबा विवदे म हि अयाण ॥ जि० ॥ आ० ॥ ५ ॥ सम दम शुभ वनावमां. सा हिबा प्रनु तुम रूप अखंग ॥ जि० ॥ नगत वंदित संलीनता, साहिबा एहथी प्रगट प्रचंग; जि ॥ द्या ॥ ६ ॥ करुणा रस संज गथी, साहिबा दीगे नवल दिदार ॥ जि० ॥ रूप विबुध कविराजनो, साहिवा मोहन जय जय कार ॥ जि० ॥ श्रा० ॥ ॥ इति
॥ अथ श्री अजित जिन स्तवनं । ॥कांवल रोपाणी लागणो॥ ए देशी॥ ॥ उत्लग अजित जिणंदनी, माहारे मन मानी ॥ मालती मधुकरनी परें, बनी प्रीत अबानी.॥ १ ॥ वारी हुँ जित शत्रु सुत तणा, मुखडाने मटके ॥ ए आंकणी ॥ अवर को जाचूं नही, विण सामी सुरं गा ॥ चातक जिम जलधर विना, नवि सेवे गंगा ॥ २ ॥ वा० ॥ ए गुण प्रनु केम वीसरे, सुगी अन्य प्रशंसा ॥ बीलर जल किणविध रति धरे, मान सरना हंसा ॥३॥ वा० ॥ शिव एक चंदकला थकी, लही ईश्वरता ॥ अनंत कलाधर में धस्यो, मुज अधिक पुण्याई ॥४॥ वा० ॥ तुं धन तुं मन तन तुंही, ससमेहा स्वामी ॥ मोहन कहे कवि