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थया विण, कोइ न मुगति जावे हो ॥ २ ॥ प्र० ॥ सिद्ध निवास लहे नवि सिद्धि, तेमां शो पाड तुमा रो ॥ तो उपगार तुमारो वहिएं अजव्य सिने तारो हो ॥ ३ ॥ प्र० ॥ नाण रयण मी एकंतें, थइ बेठा मेवासी ॥ ते मांहेलो एक अंश जो थापो, तें वातें शा वासी हो ॥ ४ ॥ प्र० ॥ श्रय पद देतां नवि जनने, संकीर्णता नवि थाय ॥ शिव पद देवा जो समरथ बो, तो जस लेतां शुं जाय हो ॥ ५ ॥ प्र० ॥ सेवा गुण रंज्यो नविजनने, जो तुमें करो वडनागी ॥ तो तुमें स्वामी केम कहावो, निरमम ने नीरागी हो ॥ ६ ॥ प्र० ॥ नानिनंदन जनवंदन प्यारो, जग गुरु जग ज कारी ॥ रूपविबुधनो मोहन पनणे, वृपन लंबन ब बिहारी हो ॥ ७ ॥ प्र० ॥ इति ॥
॥ अथ श्री कूपन जिन स्तवनं ॥
॥ आज हजारी ढोलो प्रादुणो ॥ ए देशी ॥ प्रथम तीर्थकर सेवना, साहिबा उदित हृदय ससने ह ॥ जिणंद मोरा हे ॥ प्रीत पुरातन सांजरे, साहिबा रोमांचित शुचिदेह ॥ जि० ॥ १ ॥ यदिजिणंद जुहारीयें ॥ साहि बा रुपनजी ० ॥ ए क ॥ अगम अलौकिक पंथडो, साहिबा कागल पण न लखाय ॥ जि० ॥ अंतरगत नी वातडी, साहिबा जग जानें न कहाय ॥ जि० ॥ यादि० ॥ २ ॥ कोडि टकानी हो चाकरी, साहिबा प्रा पति वि न लहाय ॥ जि० ॥ मनडुंजी मलवाने न महे, साहिबा किम की मेलो थाय ॥ जि० ॥ श्र०