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(१३४) चन विकसित होय ॥नम् ॥ रोमांचित दुवे देहडी, जाणे मिलियो सोय ॥ न० ॥ २ ॥ श्री० ॥ पंचम कालें पाम, उर्लन प्रजु दीदार ॥ ॥ तोहे तेहना नामनो, बे मोहोटो आधार ॥ ज० ॥३॥ श्री० ॥ नाम ग्रहे आवी मिले, मर निंतर जगवान ॥ज॥ मंत्रवलें जिम देवता, वहेलो कीधे आह्वान ॥ ज० ॥ ॥ ४ ॥ श्री० ॥ ध्यान पदस्थ प्रनाथी, चाख्यो अनु नव स्वाद ॥न ॥ मान विजय वाचक कहे. मूको बीजो वाद ॥नम् ॥ ५॥ श्री० ॥ इति ॥ ६ ॥
॥अथ श्री सुपार्श्व जिन स्तवनं ॥ रंगीले आतमा॥ ए देशी॥निरखी निरखि तुऊ बिंबने, हर खित होय मुक मन्न ॥ सुपास सोहामणा ॥ निर्वि कारता नयनमां, मुखडूं सदा सुप्रसन्न ॥ १ ॥ सु॥ नाव अवस्था सांजरे, प्रातिहारजनी शोन ॥ सु॥ कोडि गमे देवा सेवा, करता मूकी लोन. ॥ २ ॥ सु० ॥ लोकालोकना सवि नावा, प्रतिनासे परतद ॥ सु॥ तोहे न राचे नवि रुसे, नवि अविरतिनो पद ॥३॥ सु० ॥ हास्य न रति अरति नहीं, नहीं जय शोक उगंज ।। सु०॥ नहीं कंदर्प कदर्थना, नही अंत रायनो संच ॥ ४ ॥सु०॥ मोह मिथ्यात निा गइ, नाठा दोष अढार ॥ सु०॥ चोत्रीश अतिशय राजता, मूलातिशय चार ॥ ५ ॥ सु० ॥ पांत्रीश वाणी गुणें करी, देता नवि उपदेश ॥ सु० ॥ श्म तुऊ बिंबें ता हरो, जेदनो नहिं लवलेश ॥ ६ ॥ सु॥ रूपथी प्रनु