________________
(१३५)
गुण सांभरे, ध्यान रूपस्थ विचार ॥ सु० ॥ मानवि जय वाचक वढ़ें, जिन प्रतिमा जयकार ॥ ७ ॥ सु० ॥ ॥ अथ श्री चंप्रन जिन स्तवनं ॥
॥ लगी रेहेंने ॥ ए देशी || तूंही साहिबारे मन मान्या ॥ तूं तो कल स्वरूपी जगतमां, मनमां केणे न पायो ॥ शब्दे बोलावी नलखायो, शब्दातीत ठहरायो ॥ १ ॥ तूं ॥ रूप निहाली परिचय कीनो, रुपमांहि नहिं आयो || प्रातिहारज अतिशय यहि नाणे, शास्त्रमां बुधें न लखायो ॥ २ ॥ तूं ॥ शब्द न रूप न गंधन रस नहीं, फरस न वरण न वेद ॥ नहिं संज्ञा बेदन जेदन नहिं, हास्य नहिं नहीं खेद ॥ ३ ॥ तूं ॥ सुख नहीं दुःख नहीं वली वांडा नहीं, नहीं रोग योग ने जोग ॥ नहीं गति नहीं स्थि ति नहीं रति रति, नहीं तुम हरषने शोग ॥ ४ ॥ तूं ॥ पुष्य न पाप न बंधन देह न, जनम मरण नहीं व्रीडा ॥ राग न द्वेष न कलह न जय नहीं, नहीं संता पन क्रीडा ॥ ५ ॥ ० ॥ अलख यगोचर x x विनाशी, अविकारी निरुपाधि ॥ पूरण ब्रह्म चिदानंद साहिब, ध्यानं सहज समाधि ॥ ६ ॥ तूं ॥ जे जे पूजा ते ते अंगें, तूं तो अंगथी दूरें ॥ ते माटे पूजा उपचा रिक, न घटे ध्यानने पूरें ॥ ७ ॥ तूं ॥ चिदानंद घन के पूजा, निर्विकल्प उपयोग || यतम परमा तमने दें, नहीं कोइ जडनो जोग ॥ ८ ॥ तूंο ॥ रूपातीत ध्यानमा रहेतां, चंप्रन जिनराय ॥ मान