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________________ ( ७१ ) २४ वीर्याचार-मन वचन और काय के वीर्य से युक्त होना चाहिए अर्थात् मन में सदैव काल शुभ ध्यान और शुभ संकल्प ही होने चाहिएं, कारण कि-जव मन में सत्य संकल्प और कुशल विचार उत्पन्न होते रहते है तव मन सम्यग् ज्ञान, दर्शन और चारित्र की ओर ही झुका रहता है, अन्य। प्रात्माओं पर अशुभ विचार उत्पन्न नहीं हो सकता। अतः जय मन में शुभ संकल्प उत्पन्न होगए तव प्रायः अशुभ, वाक्य का भी प्रयोग नहीं होता, अपितु मित और मधुर वाक्य ही मुख से निकलता है । जव मन और वाणी की भली प्रकार विशुद्धि हो जाती है. तव कायिक अशुभ व्यापार प्रायः निरोध किया जा सकता है । अतः श्राचार्य के तीनों योग सदैव काल शुभ वर्त्तने चाहिए। वलवीर्य तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है। जैसे कि-पंडितबलवीर्य १ वालचलवीर्य २ और वालपंडित-बलवीर्य ३। जिन-आज्ञा के अनुसार जो यावन्मात्र क्रिया कलाप किया जाता है, उसी का नाम पंडितवलवीर्य है. और यावन्मात्र मिथ्यात्ववल से क्रिया कलाप किया जाता है वह सव वालवीर्य होता है कारण कि-वालवीर्य के द्वारा कर्म क्षय नहीं होते, वल्कि कर्मों का समुदाय विशेपतया एकत्र हो जाता है। इसी कारण उसे वालवीर्य कहा जाता है। जव आत्मा सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से युक्त होता है किन्तु साथ ही वह देशअति (श्रावक ) धर्म का पालन करने वाला भी हो जाये तो उस की क्रिया को वालपंडितवीर्य कहते हैं; कारण कि-यावन्मात्र संवरमार्ग में क्रियाएं करता है, वह पंडितवलवीर्य, और यावन्मात्र वह संसारी दशा में क्रियाएं करता है. वह वालवीर्य; सो दोनों के एकत्र करने से बालपंडितवीर्य कहलाता है। अतएव आचार्य पंडित वीर्याचार से युक्त हो; जिस से संघ की रक्षा और कर्म प्रकृतियों का क्षय होता रहे। जव पंडितबलवीर्य द्वारा शिक्षा पद्धति की जायगी, तव वहुत से भव्य आत्माएं संसार चक्र से अति शीघ्र पार होने के उद्योग में लग जाएंगे। २६ श्राहरणनिपुण-आहरण दृष्टान्त का नाम है सो न्याय शास्त्र के अनुसार जब किसी विवादास्पद विषय की व्याख्या करने का समय उपलब्ध हो जावे तो अन्वय और व्यतिरेक दृष्टान्तों द्वारा उस विपय के स्फुट करने में परिश्रम करे । कारण कि-यावत्काल युक्ति युक्त दृष्टान्तों से उस विषय को स्फुट न किया जायगा, तावत्काल पर्यन्त वह विपय अस्खलित भाव में नहीं आ सकेगा, और ना ही श्रोतागण को उस से कुछ लाभ होगा। अतएव विषय के अनुसार दृष्टान्त होना चाहिए । जैसे कि- किसी ने कहा कि -" पापं दु.खाय भवति ब्रह्मदत्तवत्" अर्थात् पाप दुःख के लिये होता है, जिस प्रकार ब्रह्मदत्त को हुआ, इस
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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