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( ७० ) दर्शन है; परंच जो सम्यग् दर्शन से अनभिज्ञता रखने वाले अनेक जीव यह कहा करते हैं कि हम को तो अपने निश्चय का फल हो जाता है चाहे पदार्थ कैसे हों। उन भद्र प्रकृति वाले प्राणियों को जानना चाहिए कि-यह अन्धविश्वास आप का कार्य-साधक न होगा. अपितु अन्त में शोक प्रदर्शक वन जायगा । जैसे कि-किसी व्याक्ति ने पीतल में सुवर्ण बुद्धि धारण करली, जव परीक्षक के सन्मुख पीतल रक्खा जायगा, तब वह सुवर्ण पद का धारक कदापि न रहेगा। फल उसका यह होगा कि वह पश्चात्ताप करने लगेगा तथा जिस प्रकार सृग नदी के रेत मे जल वुद्धि धारण करके भाग २ कर प्राणों से विमुक्त हो जाता है, ठीक उसी प्रकार मिथ्या दर्शन के प्रभाव से प्राणी दुर्गति में जा गिरता है । यथार्थ निश्चय के लिये पदार्थों का ज्ञान सूक्ष्म वुद्धि से निरीक्षण करना चाहिए, क्योंकि-मिथ्यादर्शन के कारण ही जगत् में नाना प्रकार के सत उत्पन्न हो रहे हैं, जो मुमुक्षु आत्माओं को मुक्ति पथ में वाधक होते हैं।
इस प्रकार सम्यग् दर्शन के तत्त्व को जान कर प्रत्येक प्राणी को सम्यग् दर्शन से अपने आत्मा को विभूषित करना चाहिए। यह भी वात हृदय में अंकित कर लेनी चाहिए कि-सम्यग्दर्शन के बिना कभी सम्यग्ज्ञान और न्याय नहीं हो सकता।
२२ चारित्राचारयुक्त चारित्र ही प्राचार है जिसका, उसी का नाम चारित्राचार है। आचार्य में चारित्राचार अर्थात् सामायिकादि तथा श्रात्मकल्याण करने वाली शुभ क्रियाएं सर्वदा स्थिर रहनी चाहिएं।
२३ तपाचारयुक्त-जिस प्रकार वस्त्र के तन्तुओं में मल के परमाणु प्रविष्ट होजाते हैं, फिर उनको लोग क्षार वा उष्ण जल के प्रयोग से वाहिर निकालते हैं, ठीक उसी प्रकार आत्म-प्रदेशों पर जो कर्मों के परमाणु सम्मिलित हो रहे हैं उनको तप रूपी आग की उष्णता से आत्म विशुद्धि के अर्थ वाहिर निकाला जाता है । उसी का नाम तप आचार है, क्योंकि-यावत्काल सुवर्ण तप्त नहीं होता, तप्त ही नहीं बल्कि तप कर पानी रूप नहीं हो जातातव तक वह मल से विमुक्त नहीं होता, ठीक उसी प्रकार जव श्रात्मा तप के द्वारा आत्म-शुद्धि करता है, तभी यह कर्म मल से विमुक्त हो कर मोक्षपद प्राप्त करता है । शास्त्रों ने मुख्यतया तप कर्म के१२ भेद वर्णन किये हैं. परंच सव तप उत्तमता रखते हुए भी उन में ध्यान तप सर्वोत्तम प्रतिपादन किया गया है। क्योंकि केवल ज्ञान और मोक्षपद ध्यानतप के ही द्वारा उपलब्ध हो सकता है। अतएव निष्कर्ष यह निकला कि-आचार्य तप आचार से अवश्य युक्त होना चाहिए, जिस से वह कर्म मल से शुद्धि पा सके ।