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( ३६ ) १ अर्हन्-पु. चतुस्त्रिदतिशयान् सुरेन्द्रादिकृतां पूजां वा अर्हति इति श्रर्हन् मुगद्विषाहः सन्निशतुस्तुत्य इति शप्रत्ययः अरिहननात् रजो हननात् रहस्याभावाच्चेति पृषोदरादित्वात् अर्हन् "-अद्भुत रूप आदि चौंतीस अतिशयों के योग्य होने से और सुरेन्द्र निर्मित पूजा के योग्य होने से तीर्थकर का नाम अर्हन है मुगद्विपादि जैनेन्द्र व्याकरण के सूत्र से यह अर्हन शब्द सिद्ध होता है। अव दूसरी रीति से भी अर्हन् शब्द का अर्थ दिखलाते हैं। जैसे कि-अष्ट कर्म रूप वैरियों के हनने से और इस जगत् में उन के ज्ञान के आगे कुछ भी गुप्त नहीं रहने से उस ईश्वर परमात्मा तीर्थकर का नाम अर्हन है।
२ जिन:-पु. जयति रागद्वेषमोहादिशत्रन् इति जिनः,-रागद्वेष महामोह आदि शत्रुओं को जीतने से उस परमात्मा का नाम जिन है ।
३ पारगतः-पु. संसारस्य प्रयोजनजातस्य पारं कोऽर्थः अंत अगमत् इति पारगतः"--संसार समुद्र के पार जाने से और सव प्रयोजनों का अन्त करने से उस परमात्मा का नाम पारगत है।
४" त्रिकालवित्-पु. त्रीन् कालान् वेत्ति इति त्रिकालवित्"-भूत, भविष्य, वर्तमान, इन तीन कालों में होने वाले पदार्थों का जानने वाला होने से उस ईश्वर परमात्मा का नाम त्रिकालवित् है।
५ क्षीणाटकर्मा-पु. क्षीणानि अष्टौ ज्ञानावरणीयादीनि कर्माणि यस्य इति क्षीणाटकर्मा-जिसके ज्ञानावरणीयादि अष्ट कर्म क्षीण होगये है उस परमात्मा का नाम क्षीणाष्टकर्मा है ।।
६ परमेष्ठी-पु. परमे पदे तिष्ठति इति परमेष्ठी परमात् तिकिदिति इनि प्रत्यये भीरूष्टानादित्वात् पत्वं सप्तम्या अलुक् च,-परम उत्कृष्ट ज्ञान दर्शन चारित्र में स्थित होने से ईश्वर परमात्मा का नाम परमेष्ठी है ।
७ अधीश्वरः-पु. जगतामधीप्टे इत्येवं शीलोऽधीश्वरः स्थेशभासपिसकसोवरच्" इतिवरच्-जगज्जनों को आश्रय भूत होने से उस परमात्मा का नाम अधीश्वर है।
८ शम्भुः-पु. शं शाश्वतं सुखं भावयति इति शम्भुः" शंसंस्वयंविप्रोदुवो दुरिति दुः- सनातन सुख के समुदाय में होने से ईश्वर परमात्मा का नाम शम्भु है।
६ स्वयंभूः-पु. स्वयं श्रात्मना तथा भव्यत्वादिसामग्री-परिपाकात् नतु परोपदेशात् भवति इति स्वयंभूः-अपनी भव्यत्व की स्थिति पूर्ण होने से स्वयमेव उत्पन्न होता है । इसलिये उस ईश्वर परमात्मा का नाम स्वयंभू है।
१० भगवान्-पु. भगः कोऽर्थः जगदैश्वर्यशानं वा अस्ति अस्य इति भगवान्"