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( २७ ) की प्राप्तता का घातक हो जाता है । अतएव सवर्श प्रभु के वाक्य पूर्वापर विरोध के प्रकट करने वाले नहीं होते, किन्तु स्याद्वाद सिद्धान्त के प्रकट करने वाले होते हैं अर्थात् सापेक्षिक वाक्य होते हैं जैसे एक व्यक्ति को उसके पिताकी अपेक्षा पुत्र भी कह सकते हैं, और उसके पुत्र की अपेक्षा पिता भी कह सकते हैं।
१० शिष्टत्वं-अभिप्रेत सिद्धान्तोक्त की शिष्टता का सूचक वाक्य अर्थात् जिस पक्ष को स्वीकार किया हुआ है उस सिद्धान्त की योग्यता का सूचक वाक्य होता है।
११ असंदिग्धत्वम्-श्रोताजनों के संदेह को दूर करने वाला वाक्य होता है तथा श्रोताजनों को किसी प्रकार से भीश्री भगवत् की वाणी में संशय उत्पन्न नहीं हो सकता वा वाणी भ्रम युक्त नहीं होती कि इन्होंने क्या प्रतिपादन किया है ? अतएव संदेह रहित वाक्य होता है।
१२ अपहृतान्योत्तरत्वम्-चाणी में किसी के दूषणों का प्रकाश नहीं पाया जाता अर्थात् वाणी में किसी की निन्दा नहीं होती अपितु हेय-शेयऔर उपादेय रूप विषयों का ही वर्णन होता है। नतु किसी की निन्दा का।
१३ हृदयग्राहित्वम्-श्रोताओं के हृदयों को प्रिय लगने वाले वाक्य होते हैं। इसी कारण वे प्रसन्नता पूर्वक श्रीभगवान् की वाणी का अमृतपान करते हैं।
१४ देशकालाव्यतीतत्वम्-देश काल के अनुसार वाक्य होता है अर्थात् प्रस्तावोचितता उस वाक्य में पाई जाती है। क्योंकि-जो वाक्य देश काल की सीमा को उल्लंघन नहीं करता; वह अवश्य हृदय ग्राही होजाता है।
१५ तत्त्वानुरूपत्वम्-जिस पदार्थ के वर्णन का प्रारम्भ किया हुआ है, उसी कथन की पुष्टि करने वाले भागे के वाक्य होते हैं। जैसे-अहिंसा का प्रकरण चला हुआ है, तो यावन्मात्र वाक्य कहे जावेंगे, वे सब अहिंसा के सम्बन्ध में होंगे । न कि हिंसा सम्बन्धी।
१६ अप्रकीर्णप्रसृतत्वम्-जिस प्रकरण की व्याख्या की जारही है, उसके अतिरिक्त अप्रस्तुत विषय का फिर उसमें वर्णन नहीं होता अर्थात् स्वपक्ष को छोड़कर अप्रस्तुत प्रकरण का वर्णन करना अपनी अयोग्यता सिद्ध करना है । सो प्रभु के वाक्य में इस प्रकार अप्रस्तुत विषय का प्रकरण नितांत (विलकुल) नहीं होता । न अति सम्बन्ध रहित विस्तार ही होता है।
१७ अन्योऽन्यप्रगृहीतत्वम्-परस्पर पदों की सापेक्षता रहती है। क्यों कि-यदि परस्पर पदों की सापेक्षता न रहे तो उस वाक्य से अभीष्ट सिद्धि की उपलब्धि नहीं हो सकती, अतएव पद परस्पर सापेक्षता रखने वाले