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( २६ ) अतिशय क्षायिक भाव वा तीर्थकर नाम गोत्र कर्म के माहात्म्य से ही उत्पन्न हुआ करते है । अतएव श्रीभगवान देवाधिदेव और प्रत्येक प्राणी के हितैषी होते हैं। उनकी पवित्र वाणी के श्रवण से अनेक भव्यात्मा अपना कल्याण करते हैं। क्योंकि-श्रीभगवान् की वाणी यथावत् पदार्थों के दिखलाने वाली और वाणी के गुणों से अलंकृत होती है । जैसे-कि-शास्त्रों में श्रीभगवान् की वाणी के भी ३५ अतिशय वर्णन किये गए हैं यथा" पणतीसं सच्चवयणाइसेसा पण्णत्ता"
समवायागसूत्र स्थान ३५ ॥ सूत्र ३५ सत्य वचन के ३५ अतिशय प्रतिपादन किये गए हैं। जिन की नाम संख्या ग्रन्थांतर में इस प्रकार से लिखी है। जैसे कि
१ संस्कारवत्वम्-श्रीभगवान् की वाणी संस्कृतादिलक्षण युक्त होती है अर्थात् वह वाणी शब्दागम के नियमों से विरुद्ध नहीं होती, किन्तु शब्दागम के नियमों से युक्त होती है। इसी वास्ते उस वाणी काविशेषण संस्कारवत्त्व प्रतिपादन किया गया है।
२ उदात्तत्वम्-ऊंचे स्वर वाली होती है। जोकि-एक योजन प्रमाण क्षेत्र समवसरण का प्रतिपादन किया गया है। उस में वह एक योजन प्रमाण स्पष्ट रूप से विस्तृत हो जाती है, जिसको प्रत्येक प्राणी स्फुट रूप से समझता है।
३ उपचारोपेतत्वम्-गुणों से युक्त होती है, किन्तु ग्राम्यता उस में नहीं पाई जाती । क्योंकि-ग्रामीण भाषाअलंकारों से प्रायः वर्जित ही होती है।
४ गंभीरशब्द-मेघवत् गम्भीर शब्द होता है। इस प्रकार के शब्द में योग्यता और प्रभाव स्वाभाविकता से होता है।
___५ अनुनादित्वं-प्रतिरव से युक्त अर्थात् उस में प्रतिच्छन्द (प्रति ध्वनि) उठते हैं।
६ दक्षिणत्वं-सरल गुण से युक्त वाणी में छल पूर्वक कथन नहीं होता अपितु उस में दक्षिणता भरी हुई होती है।
७ उपनीतरागत्वं-माल कोशादि ग्रामराग युक्त-अर्थात् वह वाणी राग से भी युक्त होती है, किन्तु यह सातों वचनातिशय शब्द की अपेक्षा से कथन किये गए हैं। इससे आगे यावन्मात्र अतिशय कथन किये जायेंगे उन में अर्थ की प्रधानता दिखलाई जावेगी।
८ महार्थत्वं अल्प अक्षरों में महार्थ भरा हुआ होता है । जैसे-सूत्र रचना होती है, तद्वत् स्तोक कथन महार्थो का देने वाला होता है।
अव्याहतपौर्वापर्यत्वंपूर्वापर वाक्य में परस्पर विरोध नहीं होता। क्योंकि-जो वाक्य पूर्वापर विरोध युक्त होता है, वह अपने कथन करने हारे