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________________ { २१ ) चलती है, जो श्रीभगवान् की सर्वशता को सूचित करने वाली है। ११ जत्थ जत्थ बियणं अरहंता भगवंता. चिटंति वा निसीयंति वा तत्थ तत्थ वियणं तक्खणादेव (जक्खादेवा) संछन्न पत्त पुप्फ पल्लव समाउलो सछत्तो सज्झनो सघंटो सयडागो असोगवर पायवे अभिसंजायइ ।। जिस स्थान पर श्रीभगवान् खड़े होते हैं वा बैठते हैं उसी २ स्थान पर तत्क्षण ही पत्र और पुष्पों से संच्छन्न और अंकुर युक्त तथा छत्र और ध्वजावा घंटा अथवा पताका संयुक्त प्रधान-अशोक नामी वृक्ष उत्पन्न हो जाता है अर्थात् फल पुष्पों से युक्त तथा यावन्मात्र प्रधान वृक्षों की लक्ष्मी होती है उस लक्ष्मी से युक्त छत्र ध्वजा वा घंटा और पताका-संयुक्त अशोक नाम वाला वृक्ष भी उत्पन्न हो जाता है. जिससे श्रीभगवान् के ऊपर छाया हो जाती है। यह सव अतिशय कर्म-क्षय होने से ही उत्पन्न हो सकती है। कारण कि-जो तीर्थकर नाम गोत्र कर्म वांधा हुआ होता है, उसके भोगने के लिये उक्त क्रियाएं स्वाभाविक हो जाती है । यह सब घातिए कर्मों के क्षय करने का ही माहात्म्य है। • १२ ईसि पिठो मउडहाणंमि तेयमंडलं अभिसंजायइ अंधकारे वियणं । दस दिसाओ पभासेइ । पृष्ट के पिछले भाग में एक तेजोमंडल होता है, जो दसों दिशाओं में विस्तृत हुए अंधकार का नाश करता है अर्थात् उस प्रभास मंडल के द्वारा श्री भगवान के समीप सदैव काल उद्योत रहता है। यह एक प्रकार की आत्मशक्ति का ही माहात्म्य है, जिस के कारण से अंधकार का सर्वथा नाश हो जाता है। १३ वहुसमरमणिज्जे भूमिभागे। जहां पर श्री भगवान् विचरते हैं वह भूमि भाग अत्यन्त सम और रमणीय हो जाता है। भूमि भाग की विषमता दूर हो जाती है, उसका सौदर्य अत्यन्त्य बढ़ जाता है। १४-अहोसिरा कंटया जायन्ति ( भवंति)। और कंटक अधोसिर हो जाते हैं अर्थात् यदि मार्ग में कंटक भी पड़े हों तो वे भी अधोशिर हो जाते हैं । जिस कारण से वे पथ के चलने वालों को अपने तीच्ण स्वभाव से पीडित करने में समर्थ नहीं रहते। १५-उऊ विचरीया सुहफासा भवति । ऋतु के विपरीत होने पर भी सुखकारी स्पर्श रहता है अर्थात् ऋतु
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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