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( २० ) ५ पच्छन्ने आहार नीहारे अदिस्से "मस" चक्खुणा
उनका आहार और नीहार मांस चनु वालों के लिये अदृश्य होता है। इस से सिद्ध हुआ कि-अन्तरंग ( अवधि श्रादि ज्ञान वाले); चतुओं वाले श्रीभगवान् को श्राहार करते हुए वा मूत्र पुरीष (विष्टा) को उत्सर्ग करते हुए देख सकते हैं: किन्तु चर्म-चक्षुओं द्वारा वे उक्त क्रियाएं करते हुए दृष्टिगोचर नहीं होते । इस से अन्य व्यक्तियों को भी शिक्षा लेनी चाहिए कि यह दोनों क्रियाएं प्रच्छन्न ही की हुई अच्छी होती हैं।
६ आगांसगय चक्कं ।
जव श्री भगवान् विहार क्रिया में प्रवृत होते हैं, तव धर्म चक्र आकाश में चलने लगता है. क्यों कि-धर्म चक्र के आकाश में चलने पर यह सूचित हो जाता है कि-धर्म चक्रवर्ती श्री भगवान् अमुक देश वा अमुक ग्राम नगर आदि में पधार रहे हैं।
७ आगासगयं छत्तं ।
आकाश में तीन छत्र भी चलते हैं, जिससे श्रीभगवान् त्रिलोकी के नाथ सिद्ध होते हैं। क्योंकि-वास्तव में श्रीभगवान् ही त्रिलोकी के नाथ हैं। सर्व-हितैषी होने से शेप आत्मा-व्यवहार पक्ष में नाथ होने पर भी अनाथ ही माने गए है। . ८ आगासगयाओ सेयवरचामरायो ।
· आकाश में अत्यन्त श्वेत (सफेद) चामर भी चलते हैं। क्योंकि-जिस प्रकार छत्र वा चामर राज्य-चिन्ह वर्णन किये गए हैं, ठीक उसी प्रकार लोकोत्तर पन से देवाधिदेव के भी उक्त चिन्ह प्रतिपादन किये गए है।
६ आगासफालियामयं सपायपीढं सीहासणं !
आकाशवत् अत्यन्त निर्मल स्फटिक रत्नमय पादपीठ के साथ सिंहासन भी आकाश-गत होता है अर्थात् अत्यन्त स्वच्छ और पादपीठ युक्त सिंहासन आकाश में चलता है।
१० आगासगरो कुडभी सहस्सपरिमंडियाभिरामो इंदज्झनो पुरो गच्छइ ।
आकाश गत अत्यन्त ऊंची लघु पताका से युक्त और अति मनोहर अन्य ध्वजाओं की अपेक्षा अतिमहती श्रीभगवान् के भागे इन्द्रध्वजा नामी ध्वजा भी चलती है, जोकि-सहस्त्र लघु पताकाओं से परिमंडित होती है। इस से श्रीभगवान् का इन्द्रत्व सूचित होता है । इसका सारांश यह है कि जिस समय श्रीभगवान् विहार करते हैं, तव उनके आगे आगे इन्द्रध्वजा भी