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को समाधि में मानने लग जाता है, किन्तु यदि विचार पूर्वक देखा जाय तो वह समाधि क्षणस्थायी सिद्ध होती है क्योंकि द्वितीय क्षण में उस व्यक्ति की फिर वही दशा हो जाती है ठीक उसी प्रकार पदार्थों के विषय में भी जानना चाहिए । जैसे कि - जब अभीष्ट पदार्थ की उपलब्धि हो जाती है तब उस समय वह अपने आत्मा को समाधि में मानने लग जाता है और जब फिर उसकी इच्छा उत्पन्न हो जाती है तब फिर उसके पास जो विद्यमान पदार्थ है वह उसके श्रात्मा को समाधि- प्रदान करने समर्थ नहीं रहता ।
अतएव द्रव्य समाधि क्षणस्थायी कथन की गई है द्वितीय भावसमाधि है जो तीन प्रकार से प्रतिपादन की गई है । जैसे कि ज्ञानसमाधि, दर्शनसमाधि और चारित्र समाधि । सो ज्ञानसमाधि उसका नाम है जो ज्ञान में आत्मा को निमग्न कर देता है । क्योंकि जिस समय ज्ञान में पदार्थों का यथावत् अनुभव किया जाता है, तब आत्मा में एक प्रकार का अलौकिक आनन्द उत्पन्न हो जाता है । सो वह आनन्द का समय समाधिरूप ही कहा जाता है । इसी प्रकार दर्शनविषय में भी जानना चाहिए | क्योंकि जब पदार्थों के जानने में वा जिनवाणी में
ढ़ विश्वास किया जाता है, तब शंकादि के उत्पन्न न होने से चित्त में सदैव समाधि बनी रहती है । यदि उस को कोई देव विशेष भी धर्मक्रियाओं से वा धर्मसिद्धान्त से विचलित करना चाहे तो उसका श्रात्मा इस प्रकार दृढ़ होता है, जैसे कि सुमेरु पर्वत है । अर्थात् उसका आत्मा धर्म पथ से विचलित हो ही नहीं सकता है। तृतीय चारित्रसमाधि उस का नाम है जो श्रुतानुसार क्रियाएं करनी है तथा गुरु आदि की यथावत् श्राज्ञा पालन करनी हैं । जब स्थविरादि की यथावत् आज्ञा पालन की जाती है, तब अपने चित्त तथा स्थविरादि के चित्त को शांति होने से श्रात्मा में समाधि की उत्पत्ति हो जाती है, अतएव भावसमाधि उत्पन्न करके उक्त नाम गोत्रकर्म की उपार्जना कर लेनी चाहिए, क्योंकि - जब आत्मा में क्लेशादि के भाव उत्पन्न हो जाते हैं तव आत्मा में असमाधि की उत्पत्ति होने लग जाती है; जिस के माहात्म्य से अशुभ प्रकृतियों का बंध पड़ता जाता है। फिर उसका अंतिम परिणाम दुःखप्रद होता है ।
१८ पूर्वज्ञानग्रहण - अपूर्व ज्ञान के ग्रहण से भी उक्त कर्म का निबंधन किया जा सकता है - इस श्रंक का तात्पर्य यह है कि हेय ज्ञेय और उपादेय के यथावत् स्वरूप को जो जानता है, उसी का नाम अपूर्व ज्ञान ग्रहण है तथा उक्त अंकों को हृदय में ठीक स्थापन करके फिर स्वसमय और परसमय के सिद्धान्तों का अवलोकन करना है उस समय यथार्थ ज्ञान के प्राप्त होने पर जो आत्मा में एक प्रकार का अलौकिक श्रानन्द रस उत्पन्न होता है वह अकथनीय होता है तथा नूतन २ ज्ञान के सीखने का अभ्यास निरंतर करते रहना उसी का नाम पूर्व