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पारलौकिक ही सुख मिल सकते हैं परन्तु श्रुतदान से अनंत मोक्ष के सुखों की प्राप्ति हो सकती है, इतना ही नहीं श्रुतविद्या के प्रचार से अनन्त आत्माओं की रक्षा करते हुए अनेक आत्मा मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं, और चित्त में शान्ति की प्राप्ति हो जाती है। जव श्रुत को उपयोगपूर्वक पढ़ा जाता है तव एक प्रकार का प्रात्मा में अलौकिक आनन्द का प्रादुर्भाव होने लगता है, उस आनन्द का अनुभव वही आत्मा कर सकता है कि जिसको वह श्रानंद प्राप्त होता है, फिर दान शब्द से अन्य आहार वा औषधि आदि दानों का भी ग्रहण किया जाता हैं, सो यथायोग्य यति आदि को उचित दान देने से उक्त कर्म बांधा जा सकता है। प्रत्येक व्यक्तिको यथायोग्य और यथासमय दान क्रियाओं का उपयोग करना चाहिए।
१६ वैयावृत्य-प्राचार्य उपाध्याय स्थविर कुल गण वा संघादि की यथायोग्य वैयावृत्य करना इस क्रिया से भी उक्त कर्म का बंध हो जाता है-वैयावृत्य शब्द का अर्थ यथायोग्य प्रतिपत्ति (सेवा) का ही है सो जिस से संघोन्नति हो और श्रीसंघ में ज्ञानदर्शन और चारित्र की वृद्धि हो उसी का नाम संघलेता है तथा जिस प्रकार प्राचार्यादि को समाधि की प्राप्ति हो उसी प्रकार की क्रियाएं, ग्रहण करनी चाहिएं । कारण कि
यावच्चणं संते ! जीवे किंजणेइ ! वेयावच्चेणं तित्थयरनामगोयं सम्म निबंध
उत्तराध्ययन सूत्र अ. २६ पा-४३ हे भगवन् ! वैयावृत्य करने से जीव किस फल की उपार्जना करता है ? हे शिष्य ! वैयावृत्य से तीर्थकर नाम गोत्रकर्म की उपार्जना की जाती है। सो वैयावृत्य शब्द का मुख्य प्रयोजन उन्नति और समाधि को उत्पादन करना है; सो उक्त दोनों क्रियाओं से उक्त कर्म वांधा जाता है तथा सेवा ही परम : धर्म है इसी से कल्याण होसकता है, इसी के आश्रित होना चाहिए अर्थात् । योग्य व्यक्तियों की सेवा करनी चाहिए।
१७ समाधि-आत्म-समाधि होने से भी उक्त कर्म बांधा जा सकता है। जैसे कि-द्रव्यसमाधि और भावसमाधि इस प्रकार दो प्रकार से समाधि वर्णन की गई है परन्तु जिस व्यक्ति को जिस पदार्थ की इच्छा हो जव उस को अभीष्ट पदार्थ की उपलब्धि हो जाती है, तव उसका चित्त समाधि में आजाता है, उसका नाम द्रव्यसमाधि है किन्तु वह समाधि चिरस्थायी नहीं होती है। जैसे कि-दाहज्वर के हो जाने से असीम तृष्णा (पिपासा) लगजाती है, जव उस व्यक्ति को कुछ शीतल जल की प्राप्ति हो जाती है तव वह अपने आत्मा