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________________ ( ३०४ ) णाम । इस के कथन करने का सारांश इतना ही है कि-यावन्मात्र वंधनादि होते हैं वे सब अजीव द्रव्य के ही परिणाम जानने चाहिएँ । क्योंकि-जगत में मुख्यतया दोनों ही द्रव्यों का सद्भाव वर्त्त रहा है जीव और अजीव । सो जीव द्रव्य का परिणाम तो पूर्व वर्णन किया जा चुका है, अजीवद्रव्य का परिणाम भी सूत्रकर्ता ने दश ही प्रकार से प्रतिपादन किया है। अय बंधन परिणाम के विषय में सूत्रकार वर्णन करते हैं___बंधणपरिणामेणं भंते कतिविधे पएणत्ते ? गोयमा ! दुविहे पएणत्ते तंजहा-णिबंधणपरिणामे लुक्खबंधणपरिणामे समनिळ्याए बंधो नहोति समलुक्खयाए वि ण होति वेमायणिद्ध लुक्खत्तणेणं बंधोउ खंधाणं, णिद्धस्स गिद्धेण दुयाहिएणं. लुक्खस्स लुक्खेण दुयाहिएणं निद्धस्स लुरखेणं उवेइ बंधो जहएणवज्जो विसंमो समो वा ॥ भावार्थ-हे भगवन् ! बंधन परिणाम कितने प्रकार से प्रतिपादन किया है गया है ? हे गौतम ! बंधनपरिणाम दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है जैसे कि स्निग्धबंधनपरिणाम और रूक्ष बंधनपरिणाम । किन्तु यदि दोनों द्रव्य समस्निग्ध गुण वाले हों तब उनका परस्पर बंधन नहीं होता । जैसे तेल का तेल के साथ बंधन नहीं होता तथा यदि दोनों द्रव्य समरूक्ष गुण वाले हों तब उन का भी परस्पर बंधन नहीं होता जैसे वालु का वालु और प्रस्तर ('पत्थर ) का प्रस्तर के साथ बंधन नहीं होता । क्योंकि जब दोनों द्रव्य समगुण वाले होते हैं तब परस्पर आकर्षण नहीं कर सकते । अतएव वे बंधन को भी परस्पर प्राप्त नहीं हो सकते सो इस लिये यदि वे द्रव्य वैमात्रिक होवे अर्थात् स्निग्धता और रूक्षता सम भाव में न हों अपितु विषमता पूर्वक हों तब स्कन्धों का परस्पर बंधन होजाता है स्निग्ध का स्निग्ध के साथ वा रूक्ष का रूक्ष के साथ तभी बंधन होता है जब वे परस्पर समगुण न हो। इसी प्रकार स्निग्ध का रूक्ष के साथ जघन्य भाव को वर्ज कर विषम भाव से बंधन कथन किया गया है अर्थात् यदि एक एक'गुण स्निग्ध और एक गुण रुक्ष दोनों द्रव्य हो तब उनका परस्पर बंधन नहीं होसकता। अतएव यदि दोनों वैमात्रिक होवें तव ही बंधन होने की संभावना की जा सकती है। इसी कारण कर्मों के बंधन में मुख्यतया राग और द्वेष ही मूल कारण बतलाए गए हैं । इस प्रकार बंधन का अधिकार कथन किया गया है।'' . .,दोनों गाथाओं की संस्कृत टीका निम्न प्रकार से की गई है:--- , बंधनपरिमाणस्य लक्षणमाह--'संमनिद्धयाए, इत्यादि' परस्परं समस्निग्धतायां समगुणस्निग्धतायांस्तथा परस्पर समरूक्षतीयों समरूक्षताया बधो न भवति किन्तु यदि परस्परं स्निग्ध
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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