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भावार्थ- द्वीन्द्रिय जीवगति परिणाम की अपेक्षा से तिर्यग् गति परिणाम से परिणत हैं । इंद्रियपरिणाम से जीव द्वीन्द्रिय हैं क्योंकि मुख और शरीर ही इनकी इंद्रियां हैं । किन्तु शेष वर्णन नारकीयवत् है । केवल योगपरिणाम की अपेक्षा से वचनयोग और काययोग ही होता है । ज्ञान परिणाम की अपेक्षा से अभिनिवोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान भी है तथा अज्ञान परिणाम की अपेक्षा से मतिअज्ञान और श्रुत ज्ञान भी है। अपितु विभंगज्ञान नहीं है | दर्शन परिणाम की अपेक्षा से सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि है किन्तु सम्यग्मिथ्या॒ दृष्टि नही है । शेषवर्णन पूर्ववत् है । इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय पर्यन्त जानना चाहिए । भेद केवल इतना ही है कि - इन्द्रियों की वृद्धि कर लेनी चाहिए जैसे कि - त्रीन्द्रिय जीवों की तीन ही इंद्रियां होती हैं और चतुरिंन्द्रिय जीवों की चार इंद्रियां होती है । परन्तु शेष परिणामों का वर्णन प्राग्वत् जानना चाहिये ।
अव इनके अनन्तर सूत्रकार पचेन्द्रिय तिर्यग्विषय में कहते हैं:पंचेंदिय तिरिक्ख जोगिया, गंतिपरिणामेणं तिरियगतियां, सेसं जहा नेरइयाणं वरं सापरिणामेणं जाव सुक्कलेसावि चरित्तपरिणामेण णो चरिती अत्तिविचरित्ताचरित्तिवि वेदपरिणामेणं इत्थवेदगावि पुरिसवेदगावि णपुंसकवेदगावि ॥
भावार्थ-पंचेंद्रिय तिर्यग्योनिक जीव गतिपरिणाम की अपेक्षा से तिर्यग्गति में परिणत है । किन्तु शेष वर्णन जैसे नारकियों का किया गया था उसी प्रकार जानना चाहिये । भेद इतना ही है कि — लेश्यापरिणाम की अपेक्षा से पंचेंद्रिय तिर्यग्योनिकों में कृष्ण लेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ल लेश्या इन छः ही लेश्याओं में उक्त जीवों के परिणाम हो जाते हैं । यदि चारित्रपरिणाम की अपेक्षा से उनको देखते हैं तब वे जीव सर्वथा चारित्री नही होते किन्तु अचरित्री और चारित्राचरित्री होजाते हैं, परंच वेद परिणाम की अपेक्षा से वे जीव स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद इस प्रकार तीनों वेदों में परिणत हो रहे हैं ।
अव इसके अनंतर मनुष्य परिणाम विषर्य कहते है -
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मणस्साणं गतिपरिणामेणं मणुयगतिया इंदियपरिणामेणं पंचिंदिया 'अदियाचि कसायपरिणामेणं क्रोहकसायीवि जाव अकसाईवि लेसा परिणामेणं कण्हलेसावि जाव अलेसावि जोगपरिणामेणं मणजोगीवि जाव जोगीवि उद्योगपरिणामेणं जहा नेरझ्या गाणपरिणामेणं आभिणिबोहियाणीव जव केवलनाणीव अगाणंपरिणामेणं तिरिण विणाणा,