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________________ ( २८४ ) जब उक्त पक्ष किसी प्रकार से भी संघटित नहीं होते तव फिर शंका उपस्थित होती है कि-जीव और कर्म का संयोग किस प्रकार माना जाए? इसके उत्तर में कहा जा सकता कि-जीव और कर्म का संयोग अनादि सिद्ध है। जिस प्रकार सुवर्ण मल के साथ पाकर (खानि) से निकलता है ठीक उसी प्रकार आत्मा अनादि काल से कर्मों के साथ ही है किन्तु जव सुवर्ण को अग्नि आदि पदार्थों का सम्यग्तया संयोग उपलब्ध होता है फिर वह मल से रहित होकर शुद्ध हो जाता है ठीक उसी प्रकार जब आत्मा को सम्यग्दर्शन सम्यग् ज्ञान और सम्यग् चारित्र का संयोग उपलब्ध होता है तब आत्मा भी कर्म मल , से रहित होकर निर्वाण पद प्राप्त करलेता है और कृतकृत्य हो जाता है। अतएव जीव और कर्म का अनादि संयोग मानना युक्ति संगत है। अब एक और भी बात है और वह यह कि-आत्मा कर्ता है वा कर्म कर्ता है?.इस प्रश्न के समाधान में दोनों नयों का अवलम्वन करना पड़ता है जैसे किव्यवहार नय के मत से यदि विचार किया जाए तो आत्मा ही कर्ता माना जाता है। क्योंकि-व्यवहार में श्रात्मा कर्ता स्वयं प्रगट है । जब निश्चय नय के आश्रित होकर विचार किया जाता है तब कर्म का कर्ता कर्म सिद्ध होता है, क्योंकि यदि सर्व प्रकार से जीच कर्ता माना जायगा तव परगुण कर्त्ता स्वभाव नित्य सिद्ध होगा, जब परगुण कर्त्ता स्वभाव नित्य सिद्ध होगया तब सिद्धात्माएँ भी कर्म का माननी पड़ेंगी । अतः निश्चय नय के मत से जव विचार किया जाता है तव कर्म का ही कर्ता कर्म सिद्ध होता है। यदि इस में यह शंका उपस्थित की जाय कि शास्त्र में "अप्पाकर्ता विकत्ता य" इस प्रकार से पाठ श्राता है जिसका अर्थ है कि-श्रात्मा ही कर्ता और भोक्ता है। इस शंका का समाधान यह है कि-यह पाठ व्यवहार नय के आश्रित होकर कषायात्मा और योगात्मा से ही सम्बन्ध रखता है नतु द्रव्यात्मा से। वास्तव में जब आत्मा कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ) और योग (मन, वचन और काय) के वश में होता है तब ही कर्त्ता माना जाता है। जब अकषायी और अयोगी होजाता है तब कर्मों की अपेक्षा से श्रात्मा अकर्ता माना जाता है । इस सम्बन्ध में यह भी समझ लेना चाहिए कि-जब केवल जीव कर्मों से रहित हो जाता है तब वह किसी प्रकार से कर्मों को उत्पादन नहीं कर सकता और नाही फिर अकेला पुद्गल ही कर्ता होता है क्योंकि-वह जड़ है। अतः जब तक जीव और पुद्गल का परस्पर संयोग सम्बन्ध रहता है। तव तक ही व्यवहार नय की अपेक्षा से जीव कर्ता कहा जाता है किन्तु निश्चय नय के मत से यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि जब तक आत्म-प्रदेशों के
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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