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________________ ( २५२ ) जाता है जैसे कि-जीव तत्त्व १, अजीव तत्त्व २, पुण्य तत्त्व ३, पापतत्त्व ४, श्राश्रवतत्त्व ५, संवरतत्त्व ६, निर्जरातत्त्व ७, वंधतत्त्व,और मोक्षतत्त्व है जिस का संक्षेप स्वरूप निम्न प्रकार से जानना चाहिए । जैसे कि जीवतत्त्व-जिसमें वीर्य और उपयोग की सत्ता मानी जाए और व्यावहारिक दृष्टि से चारों संज्ञाओं का अस्तित्वभाव अवलोकन किया जाए उसी का नाम जीवतत्त्व है। जैसेकि-"आहार संज्ञा" जो आत्मा अपने आहार की अाशा रखते हो । यद्यपि कोई २ आत्मा तो प्रत्यक्ष आहार संज्ञा वाले दृष्टिगोचर होते हैं तथापि-एकेन्द्रिय आत्मा अनुमान प्रमाणादि द्वारा आहार संज्ञा वाले सिद्ध होते हैं क्योंकि जव वनस्पति आदि एकेन्द्रिय जीवों को उन की इच्छानुसार आहार की प्राप्ति होजाती है तब वे वृद्धि पाते हैं । किन्तु जब उन को इच्छानुसार आहारादि पदार्थ नहीं मिलते तव वे शुष्क होजाते हैं। अतएव अनुमान से सिद्ध हो जाता है कि उन जीवों में भी आहारसंशा का अस्तित्व भाव रहता है, परन्तु आगम प्रमाण तो उन जीवों के आहार विषय सविस्तर वर्णन करते ही हैं। आज कल के वैज्ञानिकों ने भी अपने नूतन आविष्कारों से यंत्रों द्वारा वनस्पति आदि एकेन्द्रिय जीवों में प्राहार संज्ञा का अस्तित्व भाव सिद्ध कर दिया है। सो आहारसंज्ञा प्राणीमात्र में विद्यमान रहती है । इसी प्रकार भय संज्ञा का भी अस्तित्व भाव प्रत्येक प्राणी में देखा जाता है। जैसे कि-अपने से अधिक वलवान से प्रत्येक प्राणी भय मानता है तथा व्यक्त भय और अव्यक्त भय सर्व संसारी जीवों में पाया जाता है। जिस प्रकार भय संज्ञा का अस्तित्व भाव देखा जाता है उसी प्रकार मैथुन संज्ञा का भी प्रत्येक व्यक्ति में अस्तित्व भाव माना गया है क्योंकिसंसारी आत्माएँ मोहनीय कर्म के उदय से मैथुन संज्ञा वाले होते ही हैं। . जब मैथुन संज्ञा की सिद्धि हो गई है तव परिग्रह संज्ञा भी प्रत्येक प्राणी में पाई जाती है जैसे कि-ममत्व भाव। क्योंकि-"मुच्छापरिग्गहोवुत्तो" यह सिद्धान्त वाक्य है अर्थात् मूच्छो ही परिग्रह प्रतिपादन किया गया है। ___ सो संसारी आत्माएँ चारों संज्ञा वाले होने से अपने जीवत्व भाव की सिद्धि करते हैं। किन्तु मोक्ष आत्माएँ अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंतसुख और अनंत बलवीर्य इत्यादि गुण युक्त हैं । ये सब जीव प्रथम तो दो भागों मे विभक्त हैं जैसेकि-संसारी जीव और असंसारी (मोक्ष प्राप्त) जीव । फिर संसारी जीव चार विभागों में विभक्त किये गये हैं। जैसेकि-नरक १, तिर्यक् २, मनुष्य ३ और देव ४।फिर इनके अनेक भेद वर्णन किये गये हैं। इनका सविस्तर स्वरूप जैनसूत्र वा नवतत्त्वादि प्रकरण ग्रंथों से जानना चाहिए।
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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