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( २५० ) परम सुखमय जीवन को व्यतीत करके अंत समय मृत्यु धर्म को प्राप्त होकर स्वर्गारोहण करते हैं । किन्तु जो कर्मभूमिक मनुष्य हैं उनके आर्य और अनार्य इस प्रकार दो भेद माने जाते हैं । परन्तु मनुष्यजाति एक ही है।
जैन शास्त्र जाति पांच प्रकार से मानता है । जाति शब्द का अर्थ भी वास्तव में यही है कि जिस स्थान पर जिस जीव का जन्म हो फिर वह आयुभर उसी जाति में निवास करे । सो पाँच जातियां निम्न प्रकार से वर्णन की गई हैं जैसे कि- '
१ एकेन्द्रिय जाति-जिन जीवों के केवल एक स्पर्शेन्द्रिय ही है जैसे किप्रथिवीकायिक-मिट्टी के जीव, अप्कायिक-पानी के जीव, तेजोकायिकअग्नि के जीव, वायुकायिक-वायुकाय के जीव, वनस्पतिकायिक वनस्पति के जीव । इन पाँचों की स्थावर संज्ञा भी है। प्रथम चारों में असंख्यात जीव निवास करते हैं और वनस्पति में अनंत आत्माओं का समूह निवास
करता है।
२द्वीन्द्रिय जाति-जिन जीवों के केवल शरीर और मुख ही होता है उन को द्वीन्द्रिय जीव कहते हैं । जैसे कि सीप,शंख,जोक, गंडोया, कपर्दिका, कौड़ी इत्यादि।
३त्रीन्द्रिय जाति-जिन जीवों के शरीर, मुख और नासिका ये तीन ही इन्द्रियां हो जैसेकि-पिपीलिका (कीड़ी) ढोरा, सुरसली, जूं और लिक्षा (लीख) आदि।
४ चतुरिन्द्रिय जाति--जिन जीवों के केवल चारों इन्द्रियां होःशरीर, मुख, नासिका और चतुः । जैसे कि--मक्षिका, मशक (मच्छर) पतंग, विच्छू (वृश्चिक ) इत्यादि।
५ पंचेन्द्रिय जाति-जिन आत्माओं के पाँचों इन्द्रियां हों । जैसेकिशरीर, जिला, नासिका, चक्षु और श्रोत्र (कान वा कर्ण) । जैसे कि नारकीय, तिर्यक्, मनुष्य और देवता । ये सव पंचेन्द्रिय होते हैं।
• सो किसी प्रकार भी जाति परिवर्तन नहीं हो सकती। जिस जाति का आत्मा हो वह उस जन्म पर्यन्त उसी जाति में रहेगा; किन्तु विना जन्म मरण किये एकेन्द्रियादि जाति में से निकल कर द्वीन्द्रियादिजाति में नहीं जा सकता। किन्तु जो वर्णव्यवस्था है वह जैन-शास्त्रों ने कर्मानुसार प्रतिपादन की है। जैसेकि
कम्मुणा भणो होइ कम्मुणा होइ खत्तिो । वईस्सो कम्मुणा होइ सुद्दो हवइ कम्मुणा॥
उत्तराध्ययन सूत्र श्र.२५ गाथा-३३॥