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ये पांच पर्याय सर्व द्रव्य में होते हैं किन्तु ६ विभावपर्याय जीव और पुद्गल में ही होती है-जैसे विभावपर्याय के वशीभूत होकर जीव चारों गति में नाना प्रकार के रूप धारण करता है और पुद्गल द्रव्य में विभाव पर्याय स्कन्ध रूप होती है परंच पर्याय निम्न प्रकार से और भी कथन किये गए हैं। जैसे कि
१ अनादिनित्य पर्याय -- जैसे मेरु पर्वत प्रमुख ।
२ सादिनित्य पर्याय - सिद्धभाव ।
३ अनित्य पर्याय - समय २ षट् द्रव्य उत्पाद और व्यय धर्म युक्त हैं ।
४ श्रशुद्धनित्यपर्याय - जैसे जीव के जन्म मरण ।
५ उपाधि पर्याय - जैसे जीव के साथ कर्मों का सम्बन्ध ।
६ शुद्ध पर्याय -जो द्रव्यों का मूल पर्याय है । वह सब एक समान ही होता है । इस प्रकार पर्याय का वर्णन किया गया है ।
सो पंचास्तिकाय रूप धर्म में सर्व द्रव्य और गुण पर्याय का वर्णन किया गया है । साथ ही ज्ञेय ( जानने योग्य ) रूप पदार्थों का सविस्तर रूप वर्णन किया गया है । अतएव यह जगत् षद् द्रव्यात्मिकरूप स्वतः सिद्ध है । दश प्रकार के धर्म का स्वरूप संक्षेप से इस स्थान पर वर्णन किया है परन्तु उक्त धर्मों का सविस्तर स्वरूप यदि अवलोकन करना हो तो जैनआगम तथा जैन ग्रन्थों में देखना चाहिए। वहां पर बड़ी प्रबल युक्तियों से उक्त धर्मो का स्वरूप प्रतिपादन किया है, परन्तु इस स्थान पर तो केवल दिग्दर्शन मात्र कथन किया है । आशा है भव्य जन जैन - श्रागमों द्वारा उक्त धर्मो का स्वरूप देख कर फिर हेय ( त्यागने योग्य ) ज्ञेय ( जानने योग्य ) और उपादेय ( ग्रहण करने योग्य ) पदार्थों को भली भांति समझ तथा धारण कर निर्वाण पद के अधिकारी बनेंगे ।
इति श्रीजैन-तत्त्वकलिकाविकासे अस्तिकाय एवं दशविधधर्मवर्णनात्मिका पष्ठी कलिका समाप्ता ।
अथ सप्तमी कलिका |
पूर्व कलिकाओं में दश प्रकार के धर्म का संक्षेपता से वर्णन किया गया है । इस कलिका में जैन - शास्त्रानुसार लोक (जगत् ) के विषय में कहा जाता है क्योंकि बहुत से भव्य आत्माओं को इस बात की शंका रहा करती है किजैन-मत वाले जगदुत्पत्ति किस प्रकार से मानते हैं ? तथा कतिपय तो शास्त्रीय