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अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा तंजहा - इहलोगासंसप्पओगे परलोगासंसप्पओगे जीवियासंसप्पयोगे मरणासंसप्पयोगे कामभोगासंसप्पओगे ॥
उपासकदशाङ्क सूत्र अ. ॥ १ ॥
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भावार्थ- बारहवें व्रत के पश्चात् श्रावक को अपश्चिम मारणांतिक संलेखना जोषणाराधना व्रत के भी पांच प्रतिचार जानने चाहिएं, किन्तु आसेवन न करने चाहिएं। जैसेकि जब अनशन व्रत धारण कर लिया हो तब यह आशा करना कि — मर कर अमात्य वा इभ्य श्रेष्ठादि होजाऊँ १ तथा मर कर देवता बन जाऊँ २ तथा जीवित ही रहूं। क्योंकि मेरी यशोकीर्त्ति श्रव अत्यन्त हो रहीं है ३ वा यशोकीर्त्ति तो हुई नहीं इसलिये अब शीघ्र मृत होजाऊँ तो अच्छा है ४ अथवा मर कर देवता वा मनुष्यों के मुझे काम भोय उपलब्ध हो जायेंगे ५
सो उक्त पांचों अतिचारों को छोड़कर शुद्ध अनशन व्रत के द्वारा आराधना करनी चाहिए । जब श्रमणोपासक श्रावक के द्वादश व्रतों की यथाशक्ति आराधना करले फिर उसको योग्य है कि- श्रमणोपासक की एकादश घडिमाएँ (प्रतिज्ञाएँ) धारण करे । जिनका सविस्तर स्वरूप दशाश्रुत स्कंध सूत्र के ५ वें अध्ययन में वर्णित हैं । इसी का नाम आगारचरित्र धर्म है । इस धर्म की. सम्यगूतया आराधना करता हुआ आत्मा कर्मों के बंधन से छूटकर मोक्ष प्राप्त करता है । जिन आत्माओं की सर्व वृत्तिरूप मुनिधर्म ग्रहण करने की शक्ति न हो उनको योग्य है कि वे गृहस्थ धर्म के द्वारा अपना कल्याण करें । इति श्री जैनतत्त्वकलिकाविकासे विशेषगृहस्थधर्मखरूपवर्णनात्मिका पंचमी. कलिका समाप्ता ॥
अथ षष्ठी कलिका |
अस्तिकायधर्म अस्तयः --- प्रदेशास्तेषा कायो - राशिरस्तिकायः धम्म - गतिपर्याय जीवपुद्गलयोर्द्धारणादित्यस्तिकायधर्मः ॥१०॥
भावार्थ - श्रस्ति प्रदेशों का नाम है, काय-उन की राशि का नाम है, अर्थात् जो प्रदेशों का समूह है, उसी का नाम धर्मास्तिकाय है । क्योंकि जो द्रव्य सप्रदेशी है वह काय के नाम से कहा जाता है । फिर उस द्रव्य का जो स्वाभाविक लक्षण वा गुण है, उस गुण की अपेक्षा उस द्रव्य की वही नाम सँज्ञा बन जाती है । जब द्रव्य लक्षण और पर्याय से युक्त होता है तब व्यवहार पक्ष मैं वह नाना प्रकार की क्रियाएँ करता दीख पड़ता है । इसका मुख्य कारण यह श्री है, कि जैनमत द्रव्यार्थिक नय के मत से प्रत्येक द्रव्य को अनादि अनंत