________________
( २२१ ) . मुंडे भवित्ता आगारातो अणगारितं पब्वइस्सामि २ कया णं अहं अपच्छिममारणंतिय संलेहणा भूसणां झूसिते भत्तपाणपडियातिक्खते पाओवगते कालं अणवकंखमाणे विहरस्सामि ३ एवं समणसा सवयसा सकायसा पागडेमाणे जागरेमाणे समणोवासते महानिजरे महापज्जवसाणे भवति ॥
ठाणांगसूत्रस्थान ३ उद्देश ४ सू. ॥ २१० ॥ भावार्थ-तीन प्रकार की शुभ भावनाओं से श्रावक कर्मों की परम निर्जरा और संसार का अन्त कर देता है, परन्तु वे मन, वचन और काय द्वारा होनी चाहिएं । क्योंकि-अन्तःकरण की शुभ भावनाएँ कर्मों की प्रकृतियों की जड़ को निर्मूल करने में सामर्थ्य रखती हैं, जिस कारण आत्मा विकासमार्ग मे प्राजाता है। जैसेकि
श्रमणोपासक सदैव काल अपने अन्तःकरण में इस बात की भावना उत्पादन करता रहे कि-कब मैं अल्प वा बहुत परिग्रह का परित्याग (दान) करूँगा । क्योंकि-गृहस्थों का मुख्य धर्म दान करना ही है । धार्मिक क्रियाओं मे धन का सदुपयोग करना उन का मुख्य कर्तव्य है।
२ कव मैं संसार पक्ष को छोड़कर अर्थात् गृहस्थावास को छोड़कर साधुवृत्ति धारण करूँगा। क्योंकि-संसार में शांति का मार्ग प्राप्त करना सहज काम नहीं है । मुनिवृत्ति में शांति की प्राप्ति शीघ्र हो सकती है । अतः मुनिवृत्ति धारण करने के भाव सदैव काल रहने चाहिएं । यह बात भली प्रकार से मानी हुई है कि-जब प्राणी मात्र से वैर जाता रहा तो फिर शांति की प्राप्ति सहज में ही उपलब्ध होजाती है।
३ कव मैं शुद्ध अन्तःकरण के साथ सब जीवों से मैत्रीभाव धारण करके भत्त पानी को छोड़ कर पादोपगमन अनशनव्रत को धारण कर काल की इच्छा न करता हुअा विचरूंगा अर्थात्, शुद्ध भावों से समाधि पूर्वक पादापगमन अनशन व्रत धारण करूंगा। यद्यपि यह वात निर्विवाद सिद्ध है कि मृत्यु अवश्यमेव होनी है परन्तु जो पादोपगमन के साथ समाधियुक्त मृत्यु है वह संसार समुद्र से जीवों को पार कर देती है। अंतएव जव मृत्यु का समय निकट आ जावे तव सव जीवों से वैरभाव छोड़कर अपने पूर्वकृत पापों का पश्चात्ताप करते हुए गुरु के पास शुद्ध आलोचना करके फिर यथाशक्ति प्रमाण अनशन व्रत धारण कर लेना चाहिए।
इस अनशन व्रत के शास्त्रका ने पांच अतिचार वर्णन किये हैं उन्हें छोड़ देना चाहिए जैसे कि
तयाणन्तरं चणं अपच्छिम मारणंतिय सलेहणा झूसणा राहणाए पंच