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( २११ ) की जाती है अतएव श्रावक को उक्त प्रकार का वाणिज्य न करना चाहिए।
पांच प्रकार के सामान्य कर्म प्रतिपादन किये गए हैं जैसेकि
११ यंत्रपीडनकर्म-यंत्र (मशीन) द्वारा तिल और इनु आदि का पीडना यह भी हिंसा का निमित्त कारण है।
१२ निर्लाञ्छनकर्म-वृषभ आदि का नपुंसक (खस्सी) करना। -
१३ दावाग्निदानकर्म-वन को आग लगा देना। जैसेकि-कोई व्यक्ति जो धर्म से अनभिज्ञ हो उसके मन में यह संकल्प उत्पन्न हो जाता है कि यदि मैं वन को अग्नि लगा दूंगा तव इस वन में नूतन घास उत्पन्न होजायगी जिससे प्रायः पशुवर्ग को वड़ा सुख प्राप्त होजायगा अतएव वन को अग्नि लगाना एक प्रकार का धर्मकृत्य है। परन्तु जो उस अग्नि द्वारा असंख्य जीवों का नाश होना है उसका उस को सर्वथा वोध नहीं है । अतएव यह कर्म भी न करना चाहिए।
१४ सरोह्रदतडागपरिशोषणताकर्म-स्वभाव से जो जल भूमि से उत्पन्न होजावे उसे सर कहते हैं । नद्यादि का निम्नतर जो प्रदेश होता है, उस का नाम हद है तथा जो जल भूमि-खनन से उत्पन्न किया गया हो उसका नाम तड़ाग है । उपलक्षण से यावन्मात्र कूपादि जलाशय हैं उन को अपने गोधूमादिखेतों को वपने के वास्ते सुखा देवे तथा अन्य किसी कारण को मुख्य रख कर जलाशयों को शुष्क करदेवे तो महाहिंसा होने की संभावना की जाती है । जैसेकि एक तो पानी के रहने वाले जीवों का विनाश दूसरे जो जल के श्राश्रय निर्वाह करने वाले जीव हैं उनका नाश । अतएव यह कर्म भी गृहस्थों को परित्याग करने योग्य है।
१५ असतीजनपोषणताकर्म-हिंसा के भाव रख कर हिंसक जीवों की पालना करनी । जैसेकि-शिकार के लिये कुत्ते पालने, मूषकों के मारने के लिये मार्जार की पालना तथा किसी अनाथ कन्या की वेश्या वृत्ति के लिये पालना करनी इत्यादि । इसी प्रकार हिंसक जीवों के साथ व्यापार करना, क्योंकिउनके साथ व्यापार करने से हिंसक कर्मों की विशेष वृद्धि होजाती है। इस कर्म में व्यापार सम्बन्धी उक्त क्रियाओं के करने का निषेध किया गया है, अनुकंपा के वास्ते नही । सो विवेकशील गृहस्थों को योग्य है कि-वे उक्त पंचदश कर्मादानों का परित्याग करदें। फिर उपभोग परिभोग गुणव्रत के पांच अतिचार भी छोड़दें । जो निम्नलिखितानुसार हैं।
तत्थणं भोयणो समणोवासएणं पंचत्रइयारा जाणियवा न समायरियव्वा तंजहा-सचित्ताहारे सचित्तपदिवद्धहारे अप्पउलिश्रो