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( २१० ) विवाह आदि के समय वहुतसी अग्नि के समारंभ की क्रियाएँ करनी पड़ती ' है। व्यापार के अर्थ उपरोक्त कर्म वर्जित है। ये सब अर्थ उपलक्षण से ही लिये गए हैं, किन्तु मुख्य अर्थ इस का कोयले का व्यापारही है । जैसे कोयले वनाकर या खानि से खोद कर कोयलों का व्यापार करना । इसी प्रकार सर्व कर्मादान विषय जान लेना चाहिए ।
२ वनकर्म-वनस्पति का छेदन करना वा वनादि का बेचना, वन कटवाना इत्यादि कृत्य सब वनकर्म में लिये जाते हैं।
३ शकटकर्म-अनेक प्रकार के यानों वा शकटों को बना या बनवा कर वेचना इस कर्म में सर्व प्रकार के वाहन ग्रहण किये जाते हैं।
४ भाटककर्म-पशुओं को भाड़े (किराया) पर देना । क्योंकि-जो पशुको भाटक पर लेजाता है वह उस की प्रायः दया पूर्वक रक्षा नहीं करता अपितु सीमा से वाहिर होकर काम लेना चाह (जान) ता है अतएव गो वृषभ ऊंटादि द्वारा भाटक व्यवहार न करना चाहिए।
'५ स्फोटककर्म-भूमि को खोदने के कर्म, जैसेकि-खान आदि का खुदवाना । ये सब विशेष हिंसा के होने से कुकर्म कहे जाते हैं।
अब शास्त्रकार पांच प्रकार के कुवाणिज्य के विषय कहते हैं । जेसेकि
६ दंतवाणिज्य–'दान्त' आदि यावन्मात्र पशु के अवयव हैं उनके द्वारा आजीविका करना सब दंतवाणिज्य कहा जाता है। जैसे-चर्म के वास्ते लाखों पशु मारे जाते हैं, वैसेही हाथी के दान्त, घूघू के नख, जीभ, पक्षियों के रोम, गाय का चमर, हरिण के श्रृंग इत्यादि अवयवों के बेचने से जीवहिंसा विशेष वढ़ जाएगी। अतएव उक्त व्यापार हिंसाजनक होने से न करना चाहिए ।
७ लाक्षावाणिज्य-लाख जीव उत्पत्ति होने की कारणीभूत है। अतएव लाक्षादि का व्यापार न करना चाहिए।
८ रसवाणिज्य-सुरादि का वेचना यह व्यापार परम निषिद्ध है।
केशवाणिज्य मनुष्य, पशु तथा पक्षियों का बेचना केशवाणिज्य में लिया जाता है अर्थात् केशवाले जीवों का बेचना केशवाणिज्य है । अतएव पशुविक्रय तथा कन्या विक्रय आदि व्यापार न करने चाहिएं। वृत्तिकार इस शब्द की वृत्ति करते समय लिखते हैं कि-"केश वाणिज्य" "केशवता दासगवोप्ट्रहस्त्यादिकाना विक्रयरूपम्" अर्थ इस की प्राग्वत् है ।।
१० विषवाणिज्य-इस कर्म में सर्व प्रकार के विष तथा अस्त्र और शस्त्र विद्या ग्रहण की जाती है अर्थात् विष का. सर्व प्रकार के शस्त्रों तथा अस्त्रों का बेचना यह सब विषवाणिज्य कर्म है । कारण कि-जिस प्रकार विष का मारने का स्वभाव है ठीक उसी प्रकार शस्त्र और अस्त्रों द्वारा जीवधात