SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २०१ ) इत्वरकालपरिगृहीतागमन-कामवुद्धि के वशीभूत होकर अगर इस प्रकार विचार करो कि-मेरा तो केवल पर स्त्री के गमन करने का ही त्याग है इसलिये किसी स्त्री को विशेष लोभ देकर कुछ समय के लिये अपनी स्त्री बना कर रख लूं तो क्या दोप है ? तो उसका यह विचार सर्वथा अयुक्त है क्योंकि इस प्रकार करने से वह खदारासंतोपवतअतिचार रूप दोष से कलंकित होजाताहै। कतिपय प्राचार्य इस सूत्र का अर्थ इस प्रकार से भी करते हैं कि-यदि लघु अवस्था में ही विवाह संस्कार होगया हो तो यावत्काल पर्यन्त उस स्त्री की अवस्था उपयुक्त न होगई होतावत्कालपर्यन्त उसके साथ समागम नहीं करना चाहिए. नहीं तो व्रत कलंकित होजाता है। २ अपरिगृहीतागमन-जिस का विवाह संस्कार नहीं हुआ है जैसे वेश्या, कुमारी कन्या, तथा अनाथ कन्या इत्यादि।उनके साथ गमन करते समय अगर विचार किया जाय कि-मेरा तो केवल परस्त्री के संग करने का नियम है, परन्तु ये तो किसी की भी स्त्री नहीं है। इसलिए इनके साथ गमन करने से दोप नहीं; तो उसका यह विचार प्रयुक्त है। क्योंकि इस प्रकार के कुतर्क से उक्त व्रत को कलंकित किया जाता है । कतिपय आचार्य इस प्रकार से भी उक्त सूत्र का अर्थ करते हैं कि यदि किसी कन्या के साथ मंगनी होगई हो परन्तु विवाह संस्कार नहीं हुआ हो, और उसी कन्या का किसी एकान्त स्थान में मिलना होगया हो तो भावी स्त्री जान कर यदि संग किया जाएगा तव भी उक्त नियम भंग हो जाता है। ३ अनंगक्रीड़ा काम की वासना के वशीभूत होकर परस्त्री के साथ कामजन्य उपहास्यादि क्रियाएँ करनी तथा काम जागृत करने की आशा पर पर-स्त्री के शरीर को स्पर्श करना वा अन्य प्रकार से कुचेष्टाएँ करनी ये सब क्रियाएँ उक्त व्रत को मलीमस करने वाली मानी जाती हैं। अतः इनका सर्वथा परित्याग कर देना चाहिए। परविवाहकरण-अपने सम्बन्धियों को छोड़ कर पुण्य प्रकृति जान कर वा लोभ के वशीभूत होकर परविवाह करने के लिए सदैव उद्यत रहना यह भी उक्त व्रत के लिये अतिचार रूप दोष है। क्योंकि मैथुन प्रवृत्ति करना पुण्य रूप नहीं हुआ करता। वृत्ति में भी लिखा है -"परविवाहकरणे' ति-परेपाम् श्रात्मन प्रात्मीयापत्येभ्यथ व्यतिरिकाना विवाहकरणं परविवाहकरणम् । अयमभिप्राय -स्वदारमतोपिणो हि न युक्तः परेपा विवाहादिकरणेन मैथुननियोगोऽनर्थको विशिष्टविरतियुक्तस्वादित्येवमनाकलयतः परार्थकरणोद्यततया अतिचारोऽयमिति" इसका अर्थ प्राग्वत् है । तथा कोई २ श्राचार्य इस सूत्र का अर्थ यह भी करते है कि यदि किसी कन्या का सम्बन्ध विवाह संस्कार से पूर्व ही किसी अन्य पुरुष के साथ होगया है,
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy