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मैं चरबी तथा अफीम में धतुरादि का प्रयोग करना । इस अतिचार का यह मन्तव्य है कि -लालच के वश होते हुए शुद्ध वस्तुओं में अशुद्ध वस्तुओं का प्रयोग कर देना । सो ये पांचों अतिचार (दोष) तृतीय अणुव्रत के हैं । जो गृहस्थ उक्त व्रत के पालन करने वाला है, उसको योग्य है कि अपने उपयोग के द्वारा उक्त दोषों के दूर करने का उपाय करता रहे । कारण कि-जब तक किसी वस्तु पर ध्यान पूर्वक विचार नहीं किया जायगा तब तक उसके पालन करने से असुविधा वनी रहेगी । अतएव जब उस पर ठीक ध्यान दिया जायगा तब वह नियम ठीक पल जायगा ।
जव श्रावक तृतीय अणुव्रत को ठीक प्रकार से समझले फिर चतुर्थ अणुव्रत के जानने की ओर चित्त को आकर्षित करे। जैसेकि - स्वदारासंतोष
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ठाणांगसूत्रस्थान ५ उद्देश ॥ १ ॥
भावार्थ - श्रावक अपने चतुर्थ अणुव्रत में परस्त्री आदि का त्याग करके केवल स्वदारसंतोष व्रत पर ही अवलम्वित रहे तथा देवी और तिर्यञ्चरणी के संग का सर्वथा परित्याग कर दे । कारण कि ब्रह्मचर्य व्रत दोनों लोकों में कल्याण करने वाला है और शारीरिक चल के प्रदान करने वाला भी है । अतएव अपने चंचल मन को वश करके इस व्रत को शुद्धता पूर्वक पालन करना चाहिए ।
स्मृति रहे कि गृहस्थ लोग इस व्रत का पालन एक करण और एक योग से ही कर सकते हैं, जैसेकि - "करूं नहीं कायसा" अर्थात् परस्त्री आदि का संग काय द्वारा नहीं करूंगा । क्योंकि –मोहनीय कर्म के उपशम करने के लिए और व्यभिचार रोकने के लिये ही विवाह संस्कार की प्रथा चली आती है । सो उक्त कार्य में संतोष धारण करना ही सर्वोत्तम कर्तव्य है | परन्तु स्वद्वारा के साथ भी मैथुन कीडा दिन में न करनी चाहिए। नांही धर्म तिथियों में उक्त क्रियाएँ करनी चाहिएं तथा परस्त्रियों के साथ उपहास्यादि क्रियाए न करनी चाहिएं। साथ ही इस अणुव्रत के जो पांच अतिचार रूप दोष हैं उन्हें त्यागना चाहिए | जैसेकि -
तयाणंतरं चर्णं सदारसंतोसिए पंच अयारा जाणियव्या न समायरियन्वा तंजहा -- इत्तरिय परिग्गहियागमणे अपरिग्गहियागमणे असंगकीडा परविवाहकरणे कामभोगातिव्याभिलासे ।।
उपासकदृशाङ्गसूत्र अ० ॥ १ ॥
भावार्थ-स्वदारासंतोषरूप चतुर्थ अणुव्रत के पांच प्रतिचार रूप दोष प्रतिपादन किये हैं । जैसेकि -