________________
( १९६ ) विमक्त होजाएं वा उसके श्वास का निरोध होजाए या वह सुखपूर्वक चल फिर न सके। एवं जो केवल दृष्टिराग के वश हात हुए शुक (तोते) आदि पक्षियों को श्रायुभर के लिये कारावास में बन्द कर देते हैं वे व्याक्ति भी अनुचित क्रियाएं ही करते हैं । क्योंकि उस पक्षिवर्ग ने उन वांधने वालों का कोई भी अपराध नही किया था, निरपराध ही उसको बन्धन में जकड़ दिया। अतएव इस प्रकार का अभ्यास न करना चाहिए । अन्यथा पाप का वोझा सिर चढ़ाना पड़ेगा।
२ वधअतिचार-निर्दयतापूर्वक पशु वा मनुष्यादि के मारने को वधअतिचार कथन करते हैं। उसका आचरण करना निषिद्ध है, क्योंकि-निर्दयतापूर्वक और क्रोध के वशीभूत होकर जो मारना है वह प्रथम व्रत को कलंकित करता है। अतएव यदि उक्त क्रियाओं के करने का अवसर प्राप्त भी हो जाए तो निर्दयतापूर्वक बर्ताव न होना चाहिए । उक्त क्रियाएं केवल शिक्षा पर ही निर्भर हो।
३छविछेदातिचार-पशु वा मनुष्यादि के अंगोपांग का छेदन करना छविच्छेदातिचार कहा है । उसका सर्वथा परित्याग करदेना चाहिए । क्योंकि इस प्रकार करने से वे पशु आदि वर्ग अंगहीन होजाते हैं और जो अंगोपांग के छेदन करने वाला होता है, उसके भाव निर्दयता की ओर अधिकतर झुक जाते हैं । अतएव प्रथम व्रत की रक्षा के लिये उक्त क्रियाएँ कदापि न करनी चाहिएं।
४ अतिभारातिचार-चौथा अतिचार अतिभाररूप है। जो व्यक्तियां पशु आदि के ऊपर अतिभार लादती हैं, उन्हें अपना स्वार्थ ही प्रिय होने के कारण पशुआदि के दुःखों की कुछ भी चिन्ता नहीं रहती, जिस का फल यह होता है कि-पशु आदि अकाल में ही मृत्यु को प्राप्त होजाते हैं और निर्दयता बढ़ जाती है । अतएव पशु आदि की शक्ति को देखकर फिर शक्ति से न्यून उस से काम लिया जाए वा भारादि लादा जाए, तब ही व्रत भली प्रकार से पाला जा सकता है। इसके अतिरिक्त इसका भी ध्यान रखना चाहिए किअन्य किसी के पशु वर्ग को देखकर उसकी भांति विना विचार किये केवल देखादेखी से पशु आदि के साथ निर्दयतापूर्वक बर्ताव न किया जाए।
५भातपानीव्यवच्छेदातिचार-पशु आदि जीवों के अन्न पानी का व्यवच्छद करने का नाम भातपानीव्यवच्छेदातिचार है। यह भी व्रत में दोष का कारण है। क्योंकि-जो किसी का वेतन न देना वा वेतन देने में विलम्ब कर देना अथवा जो समय पशु आदि के खाने का हो उसकी स्मृति न रखना अथवा यावन्मात्र में पशु वा मनुष्यादि अपने अधिकार रहने वाले है