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( १६५ ) क्योंकि उनके संकल्प उसको शिक्षित करने के ही होते हैं नतु मारने के। एवं कोई वैद्य या डाक्टर किसी रोगी के अंगोपांग छेदन करता हो तो उसके व्रत में दोप नहीं है। क्योंकि उसके भाव उस रोगी को रोग से विमुक्त करने के हैं नतु मारने के । ऐसे अनेक दृष्टान्त विद्यमान हैं, जिनका सारांश भावों पर अवलम्बित है । सो गृहस्थ ने जो जानकर, देखकर वा संकल्प कर निरपराधी जीव के मारने का परित्याग किया हुआ है, वह अपने नियम को विवेक तथा सावधानता पूर्वक सुख से पालन कर सकता है । हां यह वात अवश्य माननी पड़ेगी कि उक्त नियम वाले गृहस्थ को प्रत्येक कार्य करते समय विवेक और यत्न रखना होगा। __इस नियम को शुद्ध पालन करने के लिये श्रीभगवान् ने इस व्रत के पांच अतिचार प्रतिपादन किए हैं । जैसेकि
तयाणन्तरं चणं थूलगस्स पाणाइवाय वेरमणस्स समणोवासए णं पञ्च अड्यारा पेयाला जाणियव्या न समायरियव्या तंजहा-बंधे बहे छविच्छेए अइभारे भत्तपाणवोछए ॥१॥
(उपासकदशाङ्गसूत्र अ० १॥) __ भावार्थ-जव श्रमणोपासक सम्यक्त्व रत्न के पांच मुख्य अतिचारों को सम्यक्तयादर करदेतव उसको चाहिए कि स्थूल प्राणातिपात वेरमण जो प्रथम अनुव्रत धारण किया हुआ है, उसके भी पांच अतिचार समझे किन्तु उन पर आचरण न करे । क्योकि-आचरण करने से उक्त नियम भंग होजाता है। वे अतिचार निम्न प्रकार वर्णन किये गये हैं। जैसे
बन्धअतिचार-पशु वा मनुष्यादि को निर्दयता से वांधने को वन्धअतिचारकहते हैं । उस का आचरण करने से पशुश्रादि को परम दुःख पूर्वक समय व्यतीत करना पड़ता है और वान्धने वाले का प्रथम व्रत भंग हो जाता है। अतः यदि किसी कारण से किसीजीव को वांधनाभीपड़ जाय तो उसको कठिन बंधनों से न वांधना चाहिये । जैसे कि-व्यवहार पक्ष में गो, वृषभ, अश्व, गज आदि पशु वांधने पड़ते हैं, परन्तु बंधन करते समय कठिन बंधन का अवश्यमेव ध्यान रखना चाहिये । ताकि ऐसा न हो इस अनाथ पशु आदि के प्राण ही
१ इह खलु आणंदाइ समणे भगवं महावीरे पाणंदं समोवासगं एवं क्यासी-एवं खलु आणंदा ! ममगोवासए णं अभिगयर्जावाजांवेण जावअगइकमाणिज्जणं सम्मत्तस्स पंच अइयारा पेयाला जाणियव्वा न समायरियव्वा तंजहा- संवा कड्खा विइगिच्छा परपासंडपसमा परपासंडसयवे ॥ यह पाठ उपानकदशागमूत्र के प्रथम अध्ययन में आना है । इसके आगे व्रतो के अतिचारों का वर्णन कियागया है। इस सूत्र का अर्थ प्राग्वत् ही है ॥