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________________ ( १६१ ) ३ विचिकित्सा अतिचार - पुण्य और पाप कर्मों के फल विषय सन्देह न करना चाहिए। जैसे कि जो धर्म क्रियाएँ मैं करता हूं उसका फल होगा किंवा नहीं ? कारण कि जो कर्म किया गया है उसका फल तो अवश्यमेव भोगना पड़ेगा । इस लिये धर्म के कृत्य विषय सन्देह न करना चाहिए । इसी तरह जैन- भिक्षु को देख कर घृणा उत्पन्न नहीं करनी चाहिए जैसे कियह लोग स्नानादि क्रियाएं नहीं करते अतएव ये निंद्य तथा प्रदर्शनीय हैं इत्यादि भाव उत्पन्न न करने चाहिएं, क्योंकि जैन- शास्त्र जल-स्नान से शारीरिक शुद्धि मानता है, नतु आत्म-शुद्धि | जब जैन भिक्षुत्रों ने विषयविकारादि का सर्वथा परित्याग किया हुआ है तब उनको स्नानादि क्रियाओं के करने की क्या आवश्यकता है ? जब अशुचि आदि का काम पड़ता है तब वे जलादि से शुचि करते ही हैं । इसलिये मुनियों को देख कर घृणा उत्पन्न करने की जगह अन्तःकरण से यह विचार होना चाहिए कि हम लोग ग्रीष्म ऋतु में स्नानादि क्रियाओं के किये बिना नही रह सकते, मुनिवर धन्य हैं, जो गर्म ऋतु में भी अपने शारीरिक संस्कार को छोड़ कर मन पर विजय प्राप्त कर शान्त मुद्रा धारण किये हुए हैं । ४ मिथ्याडष्ट्रिप्रशंसाचार - जो आत्मा नास्तिक हैं, सर्वज्ञोक्त वाणी को सत्य रूप नही मानते, सदैव काल विषयानंदी बन रहे हैं, उनकी प्रशंसा न करनी चाहिए | क्योंकि उनकी प्रशंसा करने से बहुत से भद्र प्राणी धर्म कृत्यों से विमुख होजायेंगे । एवं जो जिनाज्ञा से बाहिर होकर पाखंड रूप चहुतसा क्रियाकलाप करते हो वे भी प्रशंसा के योग्य नहीं हैं ॥ ५ परपाखंडी संस्तव-जो आत्मा जिनोक्त वाणी को नही मानते, मिथ्यात्व क्रिया में निमग्न हो रहे हैं तथा भद्र लोगों को धर्म पथ से विचलित करके श्रानन्द मानते हैं, जूवा, मांस, मदिरापान, आखेटकर्म, वेश्या परस्त्रीगमन, चोरी आदि कुकृत्यों में लगे हुए हैं, उनका संग या विशेष परिचय प्राप्त नही करना चाहिए । अन्यथा धर्म में ग्लानि उत्पन्न होजायगी और उनके कुसंग के प्रभाव से धर्म में अरुचि हो जायगी। शास्त्र -कारों ने श्रापत् धर्म के लिए कुछ श्रागार (संकेत) भी प्रतिपादन कर दिये हैं, जैसेकि - रायाभियोगेणं गणाभियोगेणं बलाभियोगेणं देवयाभियोगेणं गुरुनिग्रहेणं वित्तिकंतारेणं । उपासकदशांग सूत्र ० ॥ १ ॥ भावार्थ - १ रायाभिश्रोगेणं - राजा की आज्ञा से सम्यक्त्वधर्म से प्रतिकूल कोई कार्य कभी करना पड़ जाय तो सम्यक्त्व में दूषण नहीं लगेगा कारण कि - राजाज्ञा का पालन करना एक प्रकार का आपत् धर्म माना जाता
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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