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( .१८१ ।) शाली वनगया तव रोगी के लिये उसका कितना भयानक परिणाम होगा और रोग को उपशम करने के लिए कितना परिश्रम करना पड़ेगा? यह कहने की आवश्यकता नहीं । इसके अतिरिक्त भोजन करते समय रसों में मूर्छित न होना चाहिए । कारण किं-स्तोकमात्र रस के वशीभूत होकर फिर परिमाण से अधिक भोजन किये जाने पर रोगों का मुंह देखना पड़ता है। फल रूप फिर अात्मा में असमाधि भी उत्पन्न होजाती है। इसलिये आत्मा को समाधि मे रखने के लिये और धार्मिक क्रियाएँ पालन करने के लिये भोज्य पदार्थों मे अवश्य विवेक होना चाहिए । कतिपय विद्वानों कामत है कि-जव भोजन करने का समय आए तव उदर (पेट) के तीन भाग कल्पना करलेने चाहिएं जैसेकि-एक भाग अन्न से भर लिया, फिर दूसरा भाग पानी से भरे जाने पर उदर का एक भाग खाली रखा जाना चाहिए, ताकि जब किसी कारण से उक्त दोनों भागों में विकार उत्पन्न होजाए तव तीसरा भाग उस विकार को शान्त करले । इसलिये परिमाण से अधिक भोजन न करना सदैव काल पथ्यरूप माना गया है।
"तथा अदेशकालचर्यापरिहार इति”
इस सूत्र का मन्तव्य यह है कि देश और काल से प्रतिकूल होकर कदापि न चलना चाहिए । जैसेकि जो पुरुप विना समय अर्थात् अकाल मे गमनागमन करता है, वह अवश्यमेव लोगों की दृष्टि में शंका का पात्र बन जाता है। क्योंकि-श्रेष्ठ प्रात्माएँ कदापि असमय गमनागमन नहीं करती। इसी प्रकार देश विषय में भी जानना चाहिए। तथा यावन्मात्र शंका के स्थान है, उन स्थानो पर कदापि न जाना चाहिए। जैसेकि-जिस स्थान पर वेश्याओं के गृह हैं, द्यत-स्थान मदिरास्थान, तथा मासादि के विक्रय के स्थान । यदि उन स्थानो पर पुनः २ गमनागमन होगा तव सभ्य पुरुपों की दृष्टि में वह अवश्यमेव शंका का पात्र बन जायेगा । अतएव सामान्य गृहस्थधर्म के पालन करने वाले व्यक्ति को योग्य है कि वह प्रत्येक कार्य सावधानतापूर्वक करने की चेष्टा करे, कारण कि-जिस कार्य को करते समय अपने वल और निर्वलता की परीक्षा नहीं की जाती, उस कार्य की सफलता भी शंकास्पद ही रहती है। अतएव सिद्ध हुआ कि कार्य करते समय अपने वल और अवल का अवश्यमेव ध्यान होना चाहिए अर्थात् धर्म, अर्थ और काम जिस प्रकार निर्विघ्न पालन किये जासके, उसी प्रकार वर्त्तना चाहिए। साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि-जो ज्ञानादि से वृद्ध है उनकी संगति में हि विशेषतया समय व्यतीत किया जाए । यद्यपि कतिपय शास्त्रज्ञों का मत है कि-"तथा अतिसंगवर्जनमिति' किसी का भी अतिसंग न करना