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________________ ( १६३ ) दिन प्रतिदिन अभ्युदय होने लग जाता है। अतः गणधर्म के नियम गण स्थविरों को सुचारू रूप से वनाने चाहिएं। धर्म पक्ष के लिहाज़ से देखा जायतो गण साधुओं के समूह का नाम है, उसका जो धर्म (समाचार) है उसी का नाम गणधर्म है क्योंकि साधुओं के गण में आचार्य, उपाध्याय, गणी, गणावच्छेदक, प्रवर्तक और स्थविर ये छः पदधारी व्यक्तियां होती हैं, और भलीप्रकार गण की रक्षा वा विशुद्धि करते रहना इन का कर्तव्य होता है। जैसेकि-१ श्राचार्य का कर्तव्य होता है कि-गच्छ की भली भांति रक्षा करते हुए गण मे ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार, और बलवीर्याचार की वृद्धि करता रहे । ज्ञानाचार-ज्ञान की वृद्धि करना, दर्शनाचारसम्यक्त्व की विशुद्धि के उपाय सीखने वा सिखलाने, चारित्राचार-चारित्र की विशुद्धिगण में करते रहना, तपाचार-गण में तपःकर्म का प्रचार करना और बलवीर्याचार-तप संयम में पुरुषार्थ करना । २ उपाध्याय का कर्तव्य है कि गणवासी भिनुओं को सूत्र और अर्थ प्रदान कर विद्वान् बनाना, जिस प्रकार होसके गच्छ में विद्या प्रचार करना । ३ गणी-गच्छ की क्रियाओं का निरीक्षण करना गणी का कर्तव्य है, यदि शुभ क्रियाएँ होरही हों तो उन के कर्ताओं को धन्यवाद देनाः यदि अशुभ होरहा हो तो उनके कानों को शिक्षित करना। मुनियों को साथ लेकर देश और विदेश से गण के योग्य सामग्री का संपादन करना गणावच्छेदक का कर्तव्य है जैसेकि वस्त्र, पात्र तथा ज्ञान के उपकरण पुस्तकादि जिस के कारण गण सुरक्षित रहसके और गण में किसी भी उपकरण की त्रटिन रहे। ५ प्रवर्तक-अपने साथ के रहनेवाले मुनियों को आचार गाचार में प्रवृत्त कराना तथा जब किसी स्थान पर मुनि-सम्मेलन आदि होजाय तो उस सम्मेलन में मुनिया की आहार पानी से रक्षा (सेवा) करना और वैयावृत्त्य में दत्तचित्त रहना । ६ स्थविर का कर्तव्य है कि-जो आत्माएँ धर्म से पतित होरही हो उनको धर्म में स्थिर करना तथा जिन्होंने प्रथम धर्म के स्वरूप को नहीं जाना है उन आत्माओं को धर्म पथ में आरूढ़ करना और उनको उस धर्म में स्थिर करना । यद्यपि एक 'गणधर' उपाधि भी होती है, परन्तु वह श्री तीर्थकर देव के विद्यमान होने पर ही होती है। क्योंकि-जो तीर्थकरदेव का मुख्य शिष्य होता है उसेही वड़ागणधर कहते हैं । अतः धार्मिक गण में जो उपाधिधारी मुनि हों उन्हें योग्य है कि वे गण में इस प्रकार के नियमों की योजना करें जिससे गण में ज्ञान दर्शन और चारित्र का वृद्धि होती रहे । तथा गच्छवासी मुनि शांतिपूर्वक संयम वृत्ति की आराधना कर सुगति के अधिकारी बने। कारण कि-गण स्थविरों की योग्यता ' इसी बात में पाई जाती है कि गण सुरक्षित होता हुआ उन्नतिशाली वन सके
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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