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ने राष्ट्रस्थविर के नाम से लिखा है. जो राष्ट्र को सब तरह से सुरक्षित रख सकें और इस प्रकार के नियमों का प्रादुर्भाव करते रहें. उसी का नाम राष्ट्रधर्म है । जैसेकि - विदेश से किन २ नियमों के द्वारा व्यापार हो सकता है और किन २ नियमों द्वारा हमारा व्यापारी वर्ग विदेशी पदार्थों से लाभ उठा सकता है तथा अधिक विदेशी व्यापार क्या हमारे देश निवासियों को निर्धन तो
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न बनादेगा ? क्योंकि - जय स्वदेशी पदार्थ क्रय विक्रय होते ही नहीं, तब उन की उत्पत्ति में न्यूनता पड़ने लगजायगी, इस प्रकार के भाव उनके अन्तःकरण से उत्पन्न होते रहते हैं । फिर साथ ही राष्ट्र स्थविर इस प्रकार अपने भावों से अनुभव करते हैं कि अब यह राष्ट्र व्यापार वेष अथवा मापात्रों से किस प्रकार सुशोभित होसकता है तथा जो आजकल दण्डनीति है क्या वह समयानुकूल है ? वा समय के प्रतिकूल है ? एवं जो राजकीय कर ( महसूल ) है क्या वह न्याय संगत है ? वा न्याय से रहित होकर करादि लिये जाते हैं । इत्यादि विचारों को जो राष्ट्र स्थावर हों वे सदैव काल अपने अन्तःकरण में सोचत रहें। इसका मुख्य कारण यह भी है कि जैसे काट का पात्र एक ही चार आग पर चढ़ा करता है उसी प्रकार जिस विदेशी पदार्थ ( माल ) पर अधिक कर लगे और राजा बलात्कार से अल्प मूल्य में उस माल को खरीद ले, तो आगे के लिये वहां बाहिर से माल आना बन्द होजाता है । जिससे देश अवनति दशा को पहुंच जाता है । जिसका परिणाम जनता को बड़े भयंकर रूप से भोगना पड़ता है । श्रतएव राष्ट्र स्थविर देशोन्नति के सर्व उपायाँ को सोचते रहें, तथा यदि देश में कई जातियों का समूह वसता हो, तो राष्ट्रस्थविरों को योग्य है कि वे इस प्रकार के नियम बनावें जिससे उन जातियों में परस्पर वैमनस्य-भाव उत्पन्न न होने पावें । कारण कि घर की फ्रूट किसी भी संपत् की वृद्धि का हेतु नहीं होती अपितु उस का नाशक ही होती है । तथा देशोन्नति के नियम द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को ही देखकर रक्खे जाते हैं, या उन नियमों का विशेषतया सम्बन्ध साम, दाम, भेद और दंड नीति के आधार पर ही होता है। राष्ट्रीय स्थविर प्रजा और राजा दोनों से सम्बन्ध रखते हैं, और दोनों की सम्मति से देशकालानुसार नियम निर्माण करते रहते हैं । सो उन्ही स्थविरों के माहात्म्य से प्रजा और राजा में परस्पर प्रेममय नूतन जीवन का संचार होने लगता है । एवं जिस राष्ट्र के जो वेप, भाषा. खान, पान व्यवहार वा व्यापारादि हों उन्हीं के अनुसार राष्ट्रीय स्थविर नूतन नियमावली का निर्माण किया करते हैं, तथा राष्ट्रीय पुरुषों को अपने देश की औषध जितनी लाभ कारक होती है. उसके शतांश में भी विदेशी औषध रोग के मूल कारण का विध्वंस करने में समर्थता नहीं रखती इत्यादि विचारों