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( १२६ ) १ स्त्रीपशुपंडकसंसक्तशयणासनवर्जनता--ब्रह्मचारी को स्त्री, पशु और . नपुंसकों से जो स्थान संसक्त होरहा हो उसे वर्जना चाहिए कारण कि-उस स्थान में रहने से कामोद्दीपन की संभावना है जिसका परिणाम ब्रह्मचारी के लिये परम भयानक होगा।
२ स्त्रीकथाविवर्जनता-ब्रह्मचारी पुरुष काम के जागृत करनेहारी स्त्री कथा कदापि न करे और नांही स्त्रियों में बैठ कर उक्त प्रकार की कथाओं का प्रयोग करे क्योंकि-चार २ स्त्रीकथा कहने से उसका मन किसी समय विचलित अवश्यमेव हो जायगा अतः ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य की रक्षाके लिये कामजन्य स्त्रीकथा कदापि न करनी चाहिए।
३स्त्री आलोकनवर्जनता कामहष्टि से स्त्रियों की इंद्रियों को न देखना चाहिए क्योंकि स्त्रियों की कामजन्य चेष्टाओं को देखते हुए उसके मन में कामविकार अवश्यमेव उत्पन्न होजायगा । स्त्री के शरीर का संस्थान, उस का वर्ण, उसके हाथ, पाद, आंखें, लावण्य, रूप, यौवनावस्थादि के देखने से संयम की समाधिका नाश हो जायगा ॥
४ पूर्व क्रीडा अननुस्मरणता-यदि पहिले गृहस्थपर्याय में नाना प्रकार की कामचेष्टाएं की हों तो उनकी स्मृति न करे क्योंकि उन चेष्टाओं की स्मृति से काम अवश्यमेव जागृतावस्था में पाजायगा तथा जो वालब्रह्मचारी हैं वे साहित्य ग्रंथोमें पढ़े हुए स्त्री चरित्र की पुन २ स्मृति न करें क्योंकि-श्रात्मा विकार दशा को प्राप्त होजाना है जिस कारण फिर ब्रह्मचर्य में बाधा उत्पन्न होने की संभावना रहती है।
५ प्रणीताहारवर्जनता ब्रह्मचारी को स्निग्ध आहार न सेवन करना चाहिए जैसेकि क्षीर, दुग्ध, दधि, सर्पिस्, नवनीत, तेल, गुड़ मतस्यंडी आदि । तथा जिन पदार्थों के सेवन करने से उन्माद वा विकार उत्पन्न होता हो उनका भी प्रासेवन करना उचित नहीं। कारणकि-मादक द्रव्य शरीर को पुष्टि देकर आत्मा में विकार उत्पन्न कर देते है जिसका परिणाम ब्रह्मचारी के लिये हितकारी नहीं होता। अतएव इन पांच भावनाओं द्वारा ब्रह्म- - चर्य व्रत की रक्षा करनी चाहिए । ५ परिग्रहावरमण-पंचम महावत जो अपरिग्रहरूप है उसका अन्तःकरण से पालन करना चाहिए । अल्प वा महत्, अणुरूप वा स्थूलरूप, चेतनायुक्त हो अथवा ' जड़ सबसे मूछा का परित्याग कर देना चाहिए । यदि कोई कहे कि जो '' साधु के पास वस्त्र पात्रादि हैं क्या यह परिग्रह नही है । इस शंका का समाधान दशवैकालिक सूत्र के छठे अध्ययन में इस प्रकार किया गया है: